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पांचवां अधिकार ।
[ १६१ यह जीव अपने शुभ परिणामोंसे पुण्य उत्पन्न करता है और अशुभ परिणामों से पाप उत्पन्न करता है । शुभ आयु, शुभ नाम, शुभ गोत्र और सातावेदनीय पुण्य हैं और बाकीके अशुभ आयु, अशुभ नाम, अशुभ गोत्र, असातावेदनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय पाप हैं ।। ५८ ।। पाप प्रकृतियोंका परिपाक नींबू कांजी, विष और हलाहलके समान है तथा पुण्यरूप प्रकृतियोंका परिपाक गुड़, खांड, मिश्री और अमृतके समान है ।। ५९ ।। ज्ञान तथा दर्शनमें दोष लगाना, उत्तम ज्ञानको अज्ञान बतलाना अथवा ज्ञानका घात करना, ज्ञानके कार्यों में विघ्न डालना, ज्ञानकी प्रशंसा नहीं करना, ज्ञानको छिपाना किसीको नहीं बतलाना, ज्ञानियोंके साथ ईर्ष्या करना तथा और भी ज्ञानके विरुद्ध कार्य करना आदि कार्योंसे ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मो बंध होता है ॥ ६० ॥ समस्त जीवोंपर दया करना, व्रतियोंपर विशेष दया करना, दान देना, रागपूर्वक संयम पालन करना, गुरुसे नम्र रहना, क्षमा धारण करना आदि कार्योंसे सातावेदनीयकर्मका बंध होता है ॥ ६१ ॥ दुःख, शेषाणां स्थितिरंतर्मुहूर्तिका ॥ ५७ ॥ पुण्यपापे भजेज्जन्तुः परिणामः शुभाशुभैः । शुभायुर्नामगोत्राणि सातं पुण्यमघं परम् ॥ ५८ ॥ अप्रशस्ता मता निवुकांजिविषहलाहलैः । समा प्रशस्तका तुल्या गुडखंड सितामृतैः ॥ ५९ ॥ तत्प्रदोषोपघातांतरायासादन निह्नवैः । मात्सर्यप्रत्यनीकैश्च वनात्यावरणद्विकम् ॥ ६०॥ भूतकंपात्रतादानसरागसंयमादिभिः । जीवो वनांति सद्वेद्यं गुरुनम्रः क्षमायुतः ॥ ६१ ॥
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