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पंचवां अधिकार।
[१५६ सम्यक्प्रकृतिमिथ्यात्व ॥५०॥ जिसप्रकार सांकलमें बंधा हुआ मनुष्य वहीं रुका रहता है उसीप्रकार जो इस जीवको मनुष्य, तिर्यच आदिके शरीरमें रोक रक्खे उसे आयुर्कम कहते हैं। यह जीव आयुकर्मके उदयसे मनुष्यादि भव धारण करता है । यह आयुकर्म चार प्रकारका है। मनुष्यायु, तिर्यगायु, देवायु, नरकायु ॥५१॥ जिसप्रकार चित्रकार अनेक प्रकारके चित्र बनाता है उसी प्रकार जो अनेक प्रकारके शरीरकी रचना करता है उसे नामकर्म कहते हैं। उसके तिरानवे भेद हैं । देव, मनुष्य, तिर्यंच, नरक ये चार गतियां, एकेंद्रिय, दोईद्रिय, तेइंद्रिय, चौइंद्रिय, पंचेंद्रिय ये पांच जाति । औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस, कार्मण पांच शरीर, औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, आंगोपांग, निर्माण
औदारिक, वैक्रियक, आहारक तैजस, कार्मण पांच बन्धन, ये ही औदारिक आदि पांच लगात, समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, स्थातिक, कुजक, वान, डंडक ये छह संस्थान, वज्रषभनाराच, वज्रनाराच, साराच, अर्द्धनाराच- कीलक असमासाहपाटिक ये छह संहन. स्पर्श आठ, रस पांच, गन्ध दो, वर्ण पांच, नरक, तिर्यग, मनुष्य, देवगयानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योल, उच्छवास, विहायोगति दो, प्रत्येक, साधारण, त्रस, स्थार, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुस्खर, विंशतिभेदं च मद्यधत्तूरवन्नरम् ॥५०॥ आत्मानं भवमेत्यायुर्यत्तच्चतुविधं मतम् । भवधारणसामर्थ्य श्रृंखलास्थ नरोपमम् ।।५१॥ नानाविधैर्विनिर्माणं करोति नाम तन्मतम् । चित्रकारो यथा चित्र