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पांचवां अधिकार ।
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छिद्र होजानेसे उसमें पानी भर जाता है उसीप्रकार मिध्यात्व, अविरत आदि द्वारा जीवोंके सदा कर्मोंका आस्रव होता रहता है ॥ ४३ ॥ इस जीवके साथ अनादिका - लसे अनन्त कर्मोंका सम्बन्ध चला आरहा है। उन्हीं कर्मोके उदयसे इस जीवके राग द्वेषरूप भाव होते हैं || ४४ || जिसप्रकार घीसे चिकने हुए वर्तनमें उड़ती हुई धूलि जम जाती है उसीप्रकार रागद्वेष रूप परिणामोंसे नये अनन्त पुद्गल आकर इस जीवके साथ मिल जाते हैं । भावार्थ - रागद्वेष परिणामों की उत्पत्ति कर्मोके उदयसे होती है तथा कर्मोंका बंध रागद्वेष परिणामों से होता है । पहले बंधे हुए कर्मोंके उदयसे रागद्वेष होते हैं और उनसे फिर नये कर्मोका बन्ध होता है. इसप्रकार कर्म व आत्माका सम्बन्ध अनादिकाल से है ॥४५॥ प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ये बंधके चार भेद जिनागममें कहे हैं || ४६ || उनमें से प्रकृति बंधके आठ भेद हैं, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, और अन्तराय । जिसप्रकार किसी प्रतिमाके ऊपर पड़ा भवेच्च सलिलास्रवः । मिथ्यात्वादेस्तथा जीवे कर्मास्रवो भवेनिशम् ॥ ४३ ॥ अस्त्यनादिश्व संबंधो जीवस्य भूरिकर्मणा । रागद्वेषमयो भावस्तस्योदयेन जायते ॥ ४४ ॥ मिलंति तेन जीवे हि परे च बहुपुद्गलाः । घृतपात्रे घृताभ्यक्ते निविडरेणुवृंदवत् ॥ ४५ ॥ प्रकृतेश्व स्थितेश्चाप्यनुभागाच्चप्रदेशतः । बंधश्वतुर्विधो ज्ञेयो जिनसूत्रानुसारतः ॥ ४६ ॥ आवृणोतीति यज्ज्ञानं तज्ज्ञानावरणं मतम् । देवमुखं यथा वस्त्र पंचविधं जिनागमे ॥ ४७ ॥ दर्शनावरणं प्रोक्तं दर्शनमावृणोति