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चौथा अधिकार।
[१२६ करते हैं ॥ १५७ ॥ जो मुनिराज शरीरसे भी मोह नहीं करते, जो हिंसा आदि पांचों पापोंसे सदा विरक्त रहते हैं.
और कर्मोको नाश करने में सदा तत्पर रहते हैं उन्हें शीघ्र ही मोक्षकी प्राप्ति होजाती है ॥ १५८ ॥ जिनमें मन, बचन, कायको वश करनेकी शक्ति है और जिन्होंने इंद्रियोंके विषयोंकी सर्वथा आशा छोड़ दी है ऐसे ही महापुरुष इस संसारमें
मुनि कहलाते हैं ॥ १५९ ॥ जिन्होंने धर्म पुरुषार्थको नाश , करनेवाले और अनेक प्रकारके दुःख देनेवाले मनरूपी घरका
(अन्तरङ्ग परिग्रहोंका ) त्याग कर दिया है उन्हीं महापुरुपोंको मोक्षरूपी स्त्री स्वीकार करती है ॥१६०॥ शुभध्यानमें तत्पर रहनेवाले मुनिराज ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और उत्सर्ग इन पांचों समितियोंको सदा पालन करते रहते हैं और सदा इन्हींके अनुसार चलते रहते हैं ॥१६॥ जिसप्रकार उदय होते हुए सूर्यकी किरणोंसे रात्रिका अंधकार सब क्षणभरमें नष्ट होजाता है उसीप्रकार अन्तरङ्ग बहिरंग दोनों प्रकारके तपश्चरणसे कर्मोका समुदाय शीघ्र ही नष्ट हो पालयति गृहावासादणुमात्राणि गेहिनः ॥ १५७ ॥ येषां देहेऽपि नो वांच्छा कर्मध्वंशनकारिणाम् । हिंसादिपु विरक्तानां तेषां सिद्धिर्भवेदद्रुतम् ॥१५८॥ मनोवचनकायानां वशीकरणशक्तयः । इंद्रियविषयानाशा यतयस्ते प्रकीर्तिताः ॥ १५९ ॥ मनोगृहेण ये मुक्ता भूरिपीडाप्रदायिना। धर्मार्थध्वंसकारेण मुक्तिवधूर्वृणोति तान् ॥१६॥ ईर्याभाषेषणादाननिक्षेपोत्सर्गसंस्थिताः । गच्छंति मुनयो नित्यं शुभा. त्मध्यानतत्पराः ॥१६१॥ द्वैधेन तपसा शीघं नश्यति कर्मसंचयः ।