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चाथा
चौथा अधिकार।
[१३३ जो मनुष्य "अहद्योनमः " " भगवान अंहतदेवके लिये नमस्कार हो" इसप्रकार ऊँचे शब्दोंसे उच्चारण करते हैं के मनुष्य सबसे उत्तम गिने जाते हैं, प्रशंसनीय माने जाते हैं, यशस्वी होते हैं और इस भवसागरसे पार होजाते हैं ॥१७८॥ परमात्माकी स्तुति करनेसे जो पुण्यका समुदाय उत्पन्न होता है उसका वर्णन करनेके लिये केबली भगवानके सिवाय
और कौन मनुष्य समर्थ हो सकता है ? अर्थात कोई नहीं ॥ १७२ ॥ जो मनुष्य परमात्माकी निंदा करते हैं वे आठों कर्म और क्रूरजीवोंसे भरे हुए इस संसाररूपी वनमें पाप
और दुःखोंसे असन्त दुःखी होकर सदा परिभ्रमण किया करते हैं ॥१८०॥ नीच मनुष्य, रागद्वेष आदि दोषोंसे भरपूर और लोभरूपी पिशाचसे जकड़े हुए यक्ष, राक्षस, भूत, पिशाच आदि कुदेवोंकी सेवा किया करते हैं ।। १८१॥ मिथ्याशास्त्रोंसे ठगे हुए मनुष्य, पुत्र वा धन आदिकी इच्छा करके वड़, पीपल वा कूआ आदिकी पूजा किया करते हैं अथवा कुलदेवियोंकी पूजा किया करते हैं ॥ १८२॥ जो मुनिराज रुच्चरंति नरोत्तमाः । ये ते श्लाघ्या यशोभाजस्तरंति भवसागरम् ॥ १७८ ॥ परमात्मस्तुतेर्जातं यत्सुकृतकदंवकम् । तद्वक्तुं कः समर्थोऽस्ति नरः केवलिना विना ॥१७९॥ कर्माष्टकूरजीवाढये किल्किषक्लेशपूरिताः । प्रभ्रमंते भवारण्ये तन्निंदया नराः सदा ॥ १८० ॥ यक्षभूतपिशाचादीन् रागादिदोषसंयुतान् । देवान् लोभग्रहग्रस्तान् मन्वते मानवाऽधमाः॥१८१॥वटपिप्पलकूपादीन सेवंते कुलदेविकाः। कुशास्त्रवंचिताः माः पुत्रादिधनमिच्छया॥१८२॥ सम्यग्दर्शनसंशुद्धाः