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चौथा अधिकार। [१४३ सागरोंकी उनकी आयु होती है ॥२२९॥ वहांसे आकर वे मनुष्यभव पाते हैं । मनुष्यभवमें भी स्त्रियोंके सुख भोगते हैं, बड़े धनी होते हैं, यशस्वी और सौभाग्यशाली होते हैं, भगवान जिनेन्द्रदेवकी सेवामें लीन रहते हैं, पात्रदानमें अपना मन लगाते हैं, अपनी कांतिसे सूर्यको भी लज्जित करते हैं, सदा मधुरभाषण करते हैं, देव लोग भी उनके अनेक उत्सव मनाया करते हैं, दया आदि अनेक व्रतोंको धारण करते हैं, सब मनुष्योंमें उत्तम होते हैं, अंतमें संसार, शरीर भोगोंसे विरक्त होकर जिनदीक्षा धारण करते हैं, मुनि होकर भी वे सदा शास्त्रोंके अभ्यास करनेमें तल्लीन रहते हैं और परोपकार करने में तत्पर रहते हैं। फिर घोर तपश्चरण कर केवलज्ञान प्राप्त करते हैं, अनेक देशोंमें परिभ्रमण कर भव्य जीवोंको धर्मोपदेश देते हैं और फिर चौदहवें गुणस्थानमें 'पहुंचकर मुक्त हो जाते हैं ।। २३०-२३४ ॥ इन ऊपर लिखे व्रतोंके समान व्रत धारण करनेवाले श्रावकोंको रात्रि मनुष्यत्वं पुनः प्राप्य भुंजते रमणीलुखम् । भूरिद्रविणसंयुक्ता यश:सौभाग्यमानिनः ॥२३०॥ जिनसेवासमासक्ताः पात्रदानसुमानसाः । कांतितर्जितमार्तडाः संततं मृदुभाषिणः॥२३१॥ देवैः कृतमहोत्साहा दयादिवतिनो वराः । संसारभोगनिर्विण्णाः निनदीक्षासमाश्रिताः ॥२३२॥ शास्त्राभ्यसनसंसक्ताः परोपकृतितत्पराः । केवलज्ञानिनस्ते स्युः कृत्वा मुदुस्सहं तपः ॥२३३॥ नानादेशान् परिभ्रम्य संबोध्य भव्यसंचयान् । चतुर्दशगुणस्थानं प्राप्य ते यांति निवृतिम् ॥२३४॥ निशाहारः परित्याज्यः श्रावकैव्रतधारिभिः । हिंसांगोंऽहोलतामुलं