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चौथा अधिकार। स्वामीके उपदेशको सुनकर श्रेणिक आदि कितने ही राजाओंने और कितने ही मनुष्योंने व्रत धारण किये। कितने ही मनुष्योंने श्रावकोंके व्रत धारण कर लिये और कितने ही मनुष्योंने दीक्षा धारण कर ली॥२४०॥ तदनन्तर संसाररूपी समुद्रसे पार करदेनेके लिये जहाजके समान भगवान् गौतम गणधर श्रीमहावीरस्वामीके उपदेशानुसार भव्यजीवोंको उपदेश देने लगे ॥२४१ ॥ तदनन्तर वे मुनिराज गौतमस्वामी आठों कर्मरूपी शत्रुओंको नाश करनेके लिये, कल्याण करनेवाला, कामरूपी अग्निको शांत करनेके लिये जलके समान ऐसा उत्तम तपश्चरण करने लगे ॥ २४२॥ तपश्चरण करते करते किसी एक दिन वे गौतम मुनिराज एकांत प्रामुक स्थानमें विराजमान हुए। उस समय वे निश्चल ध्यानमें लीन थे और कर्मोके नाश करनेका उद्योग कर रहे थे ॥२४३॥ प्रथम ही उन्होंने अधःकरण, अपूर्वकरण, अनि. वृत्तिकरण इन तीनों करणोंके द्वारा मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व
और सम्यक्प्रकृतिमिथ्यात्व ये तीन दर्शन मोहनीयकी प्रकृतियां और अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषाय इसप्रकार सम्यग्दर्शनको घात करनेवाली सातों प्रकृजाताः केचिच्च प्रव्रजिता द्रुतम् ॥ २४० ॥ अथ श्रीवीरवाक्येन बोधयामास मानवान् । स गौतमो गणाधीशो भवाब्धितारपोतकः ॥२४१॥ ततो योगी करोतिस्म श्रेयस्करं तपः शुभम् । कर्माष्टशत्रुनाशाय कामाग्निशमनोदकम् ॥ २४२॥ कदाचित्पासुके देशे तस्थौ रहसि गौतमः । ध्यानाचलसमारूढः कर्मक्षयकृतोद्यमः ॥ २४३ ॥