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चौथा अधिकार।
[१२५. स्वयं स्वीकार कर लेती है ॥ १३७ ॥ चोरीका त्याग कर देनेसे सब प्रकारकी विभूतियां प्राप्त होती हैं, सुंदर स्त्रियां प्राप्त होती हैं, अच्छी उत्तम गति मिलती है, निर्मल कीर्ति प्राप्त होती है और सदा धर्मकी बाद होती है ॥१३८॥ जो मूर्ख चोरी करते हुए भी सुख देनेवाली बहुतसी विभूतियां प्राप्त करना चाहते हैं वे अग्निसे सुंदर कमलोंके बनको उत्पन्न करना चाहते हैं ॥१३९॥ यदि भोजन करनेसे अजीर्ण दूर होजाय, विना मूर्य उदय हुए दिन निकल आवे और बालूको पेलनेसे तेल निकल आवे तो चोरी करनेसे भी धर्मकीप्राप्ति होजाय । भावार्थजैसे ये बातें सब असंभव हैं उसी प्रकार चोरी करनेसे धर्मकी प्राप्ति होना भी असंभव है ॥१४०॥ शीलवत पालन करनेसे सदा चारित्रकी वृद्धि होती रहती है, नरकादिक दुर्गतियोंके मार्ग बंद होजाते हैं और व्रतोंकी रक्षा होती है। यह शीलव्रत अनेक गुणरूपी बनको बढ़ानेके लिये मेघकी धाराके समान है ॥१४॥ यह शीलवत मोक्षरूपी स्त्रीको देनेवाला है और सबसे उत्तम है । जो पुरुष ऐसे इस शीलव्रतका पालन नहीं कांता वृणोति तम् । निखिलसुखमंदात्री पुनरागमवारिका ॥१३॥ समृद्धी रुचिरा योषित्सुगतिः शुभ्रकीर्तयः । धर्मवृद्धिः प्रजायंते नृणामस्तेयतः सदा ॥ १३८ ॥ तस्करकर्मतो मूढा सुखदा भूरिसंपदः । इच्छंति शोभनं ते हि पद्मवनं धनंजयात् ॥१३९॥ अनीर्णनिवृतिलेपात्सूर्यहीनं दिनं यदि । बालुकामथनात्तैलं भवेत्तत्कर्मतो वृषः ॥१४०॥ चारित्रवर्द्धनं नित्यं दुर्गतिहाःकपाटकम् । गुणौघबननीमृतं सुशीलं व्रतरक्षणम् ॥१४१॥ नो पालयति यः शीलं मुक्तिकांताप्रदं