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गौतमचरित्र ।
रहना चाहते हैं ॥ १२२॥ जो लोलुपी मनुष्य जीवोंको मारकर मांस खाते हैं वे महा दुःख देनेवाली नरक गतिमें ही उत्पन्न होते हैं ॥ १२२॥ जो लोग थोड़े से सुखके लिये जीवोंकी हिंसा करते हैं वे जी मेरुपर्वत के समान महादुःखोंको सदा भोगते रहते हैं || १२३ || इस संसार में न तो छाछसे घी निकलता है, न विना सूर्यके दिन होता है और न लेप कर लेने मात्रसे मनुष्यों की भूख मिटती है उसीप्रकार हिंसा करने से भी कभी सुखकी प्राप्ति नहीं हो सकती ॥ १२४ ॥ प्राणियोंपर दया करनेवाले मनुष्य युद्ध में भी निर्भय रहते हैं, निर्जन वनोंमें भी निर्भय रहते हैं, समुद्र नदी और पर्वतोंपर भी निर्भय रहते हैं, वे सब सङ्कटोंमें निर्भय रहते हैं ॥ १२५ ॥ जो जीव जीवोंकी हिंसा करते हैं उनकी आयु थोड़ी ही होती है, वे पेटमें ही मर जाते हैं या उत्पन्न होनेके समय मर जाते हैं, किसी शस्त्रसे मर जाते हैं, समुद्रमें पड़कर मर जाते हैं या किसी बनमें जाकर मर जाते हैं ।। १२६ ।। इसी प्रकार झूट कालकूटात्तेऽभिलषंति स्वजीवितम् ॥ १२१ ॥ जीवाभिघातकं कृत्वा मांसं खादंति लोलुपाः । तेऽघोगतिं प्रपद्यंते भूरिदुःखप्रदायिनीम् ॥१२२॥ अत्यल्पसुखसंप्राप्त्यै कुर्वति जीवहिंसनम् । दुःखं मेरुनिभं मर्त्याः भुंजंति ते निरंतरम् ॥ १२३ ॥ न तक्राज्जायते सर्पिर्न दिन सूर्यवर्जितम् । क्षुन्निवृत्तिर्न चालेपात् सुखप्राप्तिर्न हिंसनात् ॥ १२४ ॥ प्राणिनां रक्षणाज्जीवा भवंति निर्भयारणे । कांतारे दुर्गमे सिंधौ नद्यां पर्वतसंकटे ॥ १२९ ॥ योनि जन्मनि गर्भस्थे शस्त्रैः सिंधौ महाबने । अल्पायुषः प्रम्रियते जन्मिनो जंतुहिंसकाः ॥ १२६ ॥ मृषावचनतो नृणां