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गौतमचरित्र। इसीलिये वह मनकी अभिलाषाओंको पूर्ण करनेवाले कल्पवृक्षोंको भी सदा जीतता रहता था ॥ ७५ ॥ विधाताने मानों इंद्रसे प्रभुत्व लेकर, कुबेरसे धन लेकर, यमसे क्रोध लेकर, अग्निसे तेज लेकर और चंद्रमासे सुंदरता तथा शीतलता लेकर ही उसके अंग प्रसंग बनाये हों ऐसा मालूम होता था ॥ ७६ ॥ जिस प्रकार सिंहके भयसे हरिण अपने जीवनके लिये बनको छोड़ देते हैं उसी प्रकार उसके प्रतापको सुनकर शत्रु लोग भी अपने जीवनके लिये देशका भी साग कर देते थे ॥ ७७ ॥ उसका ललाट बहुत ही विस्तीर्ण और मनोहर था और ऐसा मालूम होता था मानों विधाताने अपने लिखनेके लिये ही वह ललाट बनाया हो ॥ ७८ ॥ उसके भुजारूपी दंड बड़े ही मनोहर थे, जंघातक लंबे थे
और ऐसे जान पड़ते थे मानो शत्रुओंके समुदायको जीतनेके लिये नागपाश ही हों ॥ ७९ ॥ उसका वक्षःस्थल बहुत ही बड़ा था, बहुत ही सुन्दर था, देवांगनाओंके भी मनको मोहित करता था और लक्ष्मीके क्रीड़ा करनेके घरके समान ही जान ..जिगायातो मनोभिलाषदायकम् ॥७९॥ इंद्रात्प्रभुत्वमादाय श्रीदाद्वित्तं
यमाद्रुषम् । यस्यांगं निर्मितं धात्रा तेनोग्नेः सौम्यतां विधोः ॥७६॥ यत्प्रतापं समाकर्ण्य रिपवो देशहायिनः । बभूवुर्नीवितार्थाय सिंहमयान्मृगा इव ॥७७॥ मनोहरां च योऽधत्त विस्तीर्णी भालपट्टिकां । निर्मितेव विधात्रा या लेखा) मेदिनीप्रभोः ॥७८॥ धत्ते यो बाहुसंइंडौ कातौ जानुप्रमाणकौ । वैरिकदंबकं जेतुं नागपाशाविव ध्रुवम् ॥७९॥ वक्षोऽतिविस्तृतं यस्य शुशुभे चातिसुंदरम् । रंजकं विबुध