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दूसरा अधिकार।
[४९ धारण करनेवाले पुरुषोंके नृससे सुशोभित था, उसमें अनेक अभिनय (खेल वा दृश्य) दिखाये जा रहे थे, पात्रलोग अंगविक्षेप कर रहे थे, स्त्रियोंके गीत हो रहे थे और वह नाटक समस्त स्त्रीपुरुषोंके मनको मोहित कर रहा था। इस प्रकारके नाटकको देखकर उस रानीका मन चंचल हो गया था सो ठीक ही है क्योंकि अपूर्व नाटकको देखकर किसके ह्रदयमें विकार उत्पन्न नहीं होता है॥१३४-१३८॥उसी समयसे वह रानी अपने हृदयमें चिंतवन करने लगी कि इस राज्यसुखसे मुझे क्या लाभ है, मैं तो एक अपराधीकी तरह बंदीखाने में पड़ी हुई हूं ॥१३९॥ संसारमें वे ही स्त्रियां धन्य हैं जो अपनी इच्छानुसार चाहे जहां घूमती फिरती हैं। परन्तु पहले पापकर्मोंके उदयसे मुझे वह इच्छानुसार घूमने फिरनेका मुख प्राप्त नहीं हुआ है ।।१४०॥ इसलिये अब मैं इच्छानुसार घूमने फिरनेरूप संसारके फलको शीघ्र और सदाके लिये देखना चाहती हूं। इस विषयमें लज्जा मेरा क्या करेगी ? ॥१४॥ भेरीमृदंगसत्तालवीणावंशादिनादकम् । डमरुझझेरारावं नरनारीसमाकुलम् ॥१३६॥ सतालं सलयं चारु भ्रकुंशलास्यसंयुतम् । अभिनयांगविक्षेपं कामिनीगीतसंकुलम् ॥१३७॥ अशेषनरनारीणां मनोमोहनकारणम् । अपूर्वनाटकं दृष्ट्वा विकृतिं यांति के न हि ॥१३८॥ (पंचभिः कुलकम् ) । तदा प्रभृति सा राज्ञी चिंतयामास मानसे । किमहं राज्यसौख्येन बंदिस्थाने न योजिता ॥१३९॥ ता धन्याः संति कामिन्यः स्वेच्छाभ्रमं प्रकुर्वते । संसारे तच्च नो लेभे पूर्वपापविपाकतः ॥१४०॥ संसारस्य फलं शीघ्रं द्रक्षाम्यहं निरंतरम् । स्वैरिता भ्रमणे