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गौतमचरित्र |
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चीजें जडरूप हैं और तू ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्यमय है तथा कर्मरहित शुद्ध है इसलिये हे जीव ! तू उसी शुद्ध आत्माका ध्यान कर और उसीका जप कर ॥ २४१ || यह शरीर मांस, हड्डी, रुधिर, विष्ठा, मूत्र, चमड़ा, वीर्य आदि महा अपवित्र पदार्थों से बना हुआ है इसलिये हे जीव ! तू इसमें व्यर्थ ही क्यों मोहित हो रहा है || २४२ ॥ भगवान् सिद्ध परमेष्ठी कर्मो से रहित हैं, निराकार हैं, सब तरहकी अपवित्रतासे रहित हैं, ज्ञानमय हैं और समस्त दोषोंसे रहित हैं इसलिये हे प्राणिन् ! तू ऐसे सिद्ध परमेष्ठीका स्मरण कर ।। २४३ ॥ जिसप्रकार नावमें छिंद्र होजानेसे उसमें पानी भर जाता है। उसीप्रकार मिथ्यात्व, अविरत कषाय और योगों से जीवोंके कर्मोंका आस्रव होता रहता है ।। २४४ ।। जिसप्रकार नावमें जल भर जाने से वह नाव समुद्र में डूब जाती है उसीप्रकार फर्मोंका आस्रव होने से यह जीव भी संसारमें डूब जाता है सलिये हे जीव ! कमोंके आस्रवसे सर्वथा रहित ऐसे सिद्ध परमेष्ठीका स्मरण कर || २४५ || जिसप्रकार नावका छिद्र सर्वतोऽन्यस्त्वं दृश्चिद्वीर्यसुखात्मकः । आत्मध्यानं जपातस्त्वं कर्मा - तीतो निरंजनः ॥ २४९ ॥ मांसास्थित कुशकृन्मूत्र चर्मगेहमये ध्रुवम् । काये शुक्राससंभूते जंतो ! रंज्यसि किं वृथा ॥ २४२ ॥ कर्मातीतं निराकारं सर्वाशुचिविवर्जितम् । सिद्धं भजस्व भो प्राणिन् ! ज्ञानरूपं निरंजनम् ॥२४३॥ अविरतपायैश्च मिथ्यात्वयोगकैर्भवे । कर्माबोंगिनामव्धौ नावां रंवैर्यथांभसाम् ॥ २४४ ॥ आखवादनूडते जीवः संसारेऽब्धौ च नौवि । जलागमा जातस्त्वं सिद्धमास्रववर्जितम्