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दुसरा अधिकार।
[६७ अनेकवार परिभ्रमण किया है तथा अब भी त्रस स्थावर योनियोंमें तु सदा परिभ्रमण किया करता है ॥ २३६ ॥ हे जीव ! तू इस संसारमें रत्नत्रयको प्राप्त करनेमें असावधान क्यों होरहा है ? अब तू रत्नत्रयको सिद्ध करनेमें ही मनको स्थिर कर क्योंकि इस संसारका नाश रत्नत्रयसे ही होता है ॥ २३७ ॥ हे आत्मन् ! इस संसारमें परिभ्रमण करता हुआ तू अकेला ही कर्मों का कर्ता है और अकेला ही सुख दुःखका भोक्ता है। भाई बन्धु आदि सब तुझसे भिन्न हैं ॥२३८ ॥ हे आत्मन् ! उस स्थावर योनियोंमें तुझे अकेला ही जन्म लेना पड़ता है और अकेला ही मरण करना पड़ता है इसलिये कर्ममल कलङ्कसे रहित ऐसे सिद्ध परमेष्ठीमें ही तू अपने मनको निश्चलकर अर्थात् उन्हींका ध्यान कर ॥२३९॥ इस जीवसे की भिन्न हैं, क्रिया भिन्न है, इंद्रियोंके विषय भिन्न हैं और शरीर भी भिन्न है, फिर भाई बन्धु आदि कुटुम्बी जन तो सर्वथा भिन्न हैं ही ॥ २४० ॥ हे आत्मन् ! तू सांसारिक चीजोंसे तथा शरीरसे सर्वथा भिन्न है। ये सब भ्रमिष्यसि पुनर्नित्यं त्रसस्थावरयोनिषु ॥२३६॥ किं भो मुह्यसि संसारे रत्नत्रयस्य लाभतः । स्थिरीकुरु मनः सिद्धे तेन तन्नाशनं भवेत् ॥ २३७ ॥ भ्रमन् चेतन ! संसार एकः कर्तासि कर्मणाम् । सत्सुखदुःखयोर्भोक्तास्येको भिन्नास्तु बांधवाः ॥२३८॥ त्रसस्थावरयोर्मुत्यौ जन्मन्येकोऽसि चेतन । अतो निरंजने सिद्धे हृदयं त्वं स्थिरीकुरु ॥ २३९ ॥ अन्यत्कर्म क्रिया अन्या इन्द्रियविषयाः परे । जंतुरन्यश्च कायोऽन्यो बांधवाद्याः किमु ततो ॥ २४० ॥ जीवासि