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दूसरा अधिकार।
[६६ बन्द कर देनेसे फिर उसमें पानी नहीं आ सकता उसीप्रकार कर्मोके आनेके कारण मिथ्यात्व, अविरत, आदिका साग कर देने और ध्यान चारित्र आदिको धारण करनेसे आते हुए कर्म रुक जाते हैं । इसीको संवर कहते हैं ॥२४६॥ संवरके होनेसे ही यह जीव मोक्षस्थानमें जा बिराजमान होता है इसलिये हे जीव ! तू अपने शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्माका स्मरण किये विना केवल अपने शरीरमें ही क्यों मोहित होता है ? ॥२४७ मै तप और ध्यानसे जो पहलेके इकट्ठे किये हुए कर्मोका नाश करना है उसे निर्जरा कहते हैं। वह निर्जरा दो प्रकारकी है-एक भावनिर्जरा और दूसरी द्रव्यनिर्जरा तथा वे दोनों ही निर्जराएं सविपाक और अविपाकके भेदसे दो दो प्रकारकी हैं ॥ २४८ ॥ जिसप्रकार नावमें भरे हुए पानीके निकल जानेसे नाव ऊपर आ जाती है उसी प्रकार कर्मोके नाश हो जानेसे यह जीव ऊपर जाकर मोक्षस्थानमें ही जा विराजमान होता है इसलिये हे चेतन ! तुझे सदा कर्मोकी निर्जरा करते रहना चाहिये ॥२४९ ॥ जिस प्रकार ॥२४॥ निरोधः संवरस्तेषां ध्यानचारित्रसट्ठलैः । अब्धौ नौछिद्र बंधाद्वा जलागमं भवेन्न हि ॥२४६॥ सति तस्मिन्नयं जन्मी स्वेष्टां गतिं प्रयाति वै । मुह्यस्यतः कथं स्वांगे चिद्रूपस्मरणं विना ॥२४॥ तपोध्यानबलेनापि पूर्वसंबद्धकर्मणाम् । या निर्जरा द्विधा सापि सविपाकाविपाकतः ॥ २४८ ॥ कर्मणां संक्षयात्स्वेष्टं पदं यास्यसि चेतन !। पूर्ववारिक्षयान्नौर्वा त्वमतः कुरु निराम् ॥२४९॥ ऊर्ध्वनरः कटौ हस्तः प्रसृताहिर्विमस्तकः । ईदृग्विधः स्थितो लोकः सोऽक