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चौथा अधिकार।
[ १०६. दशमीके दिन सायंकालके समय जिन दीक्षा धारण की और सबसे प्रथम षष्ठोपवास (तेला) करनेका नियम धारण किया ॥५२॥ उस समय भगवानने जो पंचमुष्टि लोंच किया था उन वालोंको इन्द्रने मणियोंके पात्रमें रक्खा और उसे ले जाकर क्षीरसागरमें पधराया ॥५३॥ जो तपश्चरणरूपी लक्ष्मीसे शोभायमान हैं और चारों ज्ञानोंसे विभूषित हैं ऐसे उन भगवानको इन्द्रादिक सब देव नमस्कार कर अपने अपने स्थानको चले गये ॥५४॥ पारणाके दिन वे बुद्धिमान भगवान दोपहरके समय कुल्य नामके नगरमें कुल्य नामके राजाके घर गये ॥ ५५ ॥ राजाने नवधा भक्ति पूर्वक भगवानको आहार दिया। वे भगवान आहार लेकर और अक्षयदान देकर उस घरसे निकल कर बनको चले गये ॥५६॥ उसी समय उस दानके फलसे ही क्या मानों देवोंने राजाके घर पंच आश्चर्योकी वर्षाकी । (रत्नवर्षा, पुष्पवर्षा, जय जय शब्द, दुंदुभियोंका बजना और दानकी प्रशंला) सो ठीक ही है-पात्रों को दान देनेसे धर्मात्मा लोगोंको लक्ष्मीकी प्राप्ति दशम्यामपराह्नके । स प्रपेदे तपो जैनं कृतषष्ठो महामतिः ॥१२॥ शको जिनस्य केशौघान्निधाय मणिभानने । पंचभिर्मुष्टभिलुप्तान दधौ क्षीरपयोदधौ ॥५३॥ अमरा अभिबंद्य तं प्रतिजग्मुर्निजालयम् । तपःश्रिया समायुक्तं चतुर्ज्ञानविराजितम् ॥५४॥ अन्येद्युः पारणायै हि मध्याह्ने कुल्यपत्तने । कुल्यनाम नृपागारं विवेश भगवान् सुधीः ॥५५॥ त्याद्य नवधा पुण्यं भूपतिस्तमभोनयत् । निनो भुक्त्वाक्षये दानं दत्वागात्तद्गृहाहनम् ॥५६॥तदा दानफलेनैव सुरेभ्योद्भुतपंचकम् ।