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चौथा अधिकार। [ १११ नको भक्तिपूर्वक नमस्कार किया ॥ ६२ ॥ उसीसमय इंद्रकी आज्ञासे कुबेरने चारकोश लंबा चौड़ा बहुत सुंदर समवसरण बनाया॥६॥वह समवसरण मानस्तंभ,ध्वजादंड, घंटा, तोरण, जलसे भरी हुई खाई, जलसे भरे हुए सरोवर और पुष्पवाटिकाओंका सुशोभित था, ऊंचे धूलिपाकारसे घिरा हुआ था, नृत्यशालाओंले विभूषितथा, उपवनोंसे मुशोभित था, वेदिका, अंतप्रजा,सुवर्णशाला आदिसे विभूषितथा,सबप्रकारके कल्पक्षोंसे मुशोभित था, और बहुत ही प्रसन्न करनेवाला था॥६४-६६॥ उसमें अनेक मकानोंकी पंक्तियां थीं। वे मकान दैदीप्पमान सुवर्ण और प्रकाशमान मणियोंके बने हुए थे । अनेक स्फटिक माणियों की शालाएं थीं जो गीत और बाजोंसे सुशोभित थीं ॥ ७॥ उस समवसरणके चारों ओर चारों दिशाओंमें चार बड़े दरवाजे थे जिनकी अनेक देवगण सेवा कर रहे थे तथा सुवर्ग और रत्नों बने हुए ऊंचे भवनोंसे वे दरवाजे शोभायमान थे ॥ ६८ ! उसमें बारह सभाएं थीं भक्त्या नेमुः सुरेंद्राद्या लोकालोकप्रकाशकम् ॥६२॥ अथ शक्राज्ञया यक्षः समवशरणं मुदा । जिनल्य सुंदरं चक्रे चतुःक्रोशप्रविस्तृतम् ॥६३॥ मानस्तंभध्वजादंडघंटातोमरामितम् । सजलखातिकावारिभृतकासारसंयुतम् ॥६४ ॥ कुसुमवाटिकातुंगरेणुप्राकारवेष्टितम् । नृत्यशालसमाकीर्णमुपबनादिराजितम् ॥ ६५ ॥ वेदिकांतध्वजाद्याढ्यं सुवर्णशालभंडितम् । विश्वकल्पद्रुमारण्यशोभित हर्षदायकम् ॥६६॥ तप्तहेमस्फुरत्कातिरत्नहावलीयुतम् । स्फाटिकमणिशालाढयं गीतवाद्यप्रणादितम् ॥६७॥ चतुः सद्गोपुरैाप्तममरगणसेवितैः । पंचमुवर्ण