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चौथा अधिकार। [११५ आपसे न बना तो आप बहुतसा अभिमान करनेवाले इन सब विद्यार्थियोंके साथ और अपने दोनों भाइयोंके साथ मेरे -गुरुके शिष्य हो जाना ॥८६॥ बूढेकी बात सुनकर गौतमने कहा कि हां ! यह बात ठीक है, अब इस बातको बदलना मत । सत्य बातको सूचित करनेवाले ये सब लोग इस बातके साक्षी (गवाही) हैं ॥ ८७ ॥ इसप्रकार वह बूढा इन्द्र और गौतम दोनों ही एक दूसरेकी प्रतिज्ञामें बंध गये । सो ठीक ही है-अपने अपने कार्यका अभिमान करनेवाले ऐसे कौनसे मनुष्य हैं जो अकृत्य ( न करनेयोग्य कार्य) को भी न कर डालते हों। भावार्थ-ऐसे मनुष्य न करनेयोग्य कार्योको भी कर डालते हैं ।। ८८ ॥ तदनन्तर उस सौधर्म इन्द्रने गौतमका मान भंग करनेके लिये आगमके अर्थको मूचित करनेचाला और बहुत बड़े अर्थसे भरा हुआ काव्य पढ़ा ।। ८१ । वह काव्य यह था “धर्मद्वयं त्रिविधकालसमग्रकर्म, षडद्रव्यकायसहिताः समयैश्च लेश्याः। तत्त्वानि संयमगती सहिता ॥४५॥ नोचेचतो मदीयस्य गुरोः शिष्यो भविष्यसि । सभ्रातृभ्यामिमैः छात्रैः साई गर्वभरावहैः ॥८६॥ गौतमेन बचः प्रोक्तं सत्यमेतन्नचान्यथा । साक्षिणो विश्वलोका हि संति सत्यार्थसूचकाः ॥८॥ प्रतिज्ञातत्परौ तौ द्वावभूतां वृद्धगौतमौ । कार्याभिमानिनौ मावकृत्यं कुरुतो न किम् ॥८६॥ अथ शक्रेण सत्काव्यं पठितं भूरिविस्तृतम् । गौतममानभंगार्थमागमस्यार्थसूचकम् ॥८९॥ धर्मद्वयं त्रिविधकालसमग्रकर्म, षड्द्रव्यकायसहिताः समयैश्च लेश्याः। तत्त्वानि संयमगती सहिता पदार्थ, रंगप्रवेदमनिशं वद चास्तिकायम् ॥९० ॥ इति
प्रतिज्ञातत्परीण विश्वलोका
हिवः प्रोक्तं सत्यो