________________
६२ ]
गौतमचरित्र |
नाश करनेवाला है, समस्त प्राणियोंपर दया करनेवाला है और बहुत ही दान देनेवाला है, उसीके पास धन मागनेके लिये हम लोग जा रहीं थीं कि तूने अपना नग्न रूप हमें -दिखला दिया || २०८ - २०९ ।। तेरा दर्शन होना भी मिथ्या वा बुरा है और तेरा शासन भी मिथ्या है। जो मनुष्य तेरी स्तुति करता है वह मिथ्यादृष्टी है और पापी है ।। २१० ॥ अरे निर्लज्ज ! अरे दुराचारी ! क्या तूने अपनी लज्जा बेच दी है ? तू कुलस्त्रियोंमें भी नंगा क्यों फिरता है ? ।। २११ ॥ अरे मूर्ख योगी ! तूने हमारे लिये अपशकुन कर दिया है । इसलिये अब हमारे कार्यकी सिद्धि तो कभी हो ही नहीं सकती || २१२ ।। अभी तो दिन है । दिनमें सब पदार्थ अच्छी तरह दिखलाई देते हैं इसलिये इस अपशकुनका फल तुझे हम रातको देंगी ।। २१३ ।। इसप्रकार उन स्त्रियोंके दुष्ट बचन सुनकर भी मुनिराजने अपने हृदयमें क्रोध नहीं किया अभून्नृपो महात्यागी प्राणिनां सुकृपापरः ॥ २०८ ॥ वयं प्रचलिता यावत्तस्मै याचयितुं धनम् । त्वया नोऽभिमुखीभूय रूपं तावत्प्रदशितम् ॥ २०९ ॥ त्वदीयं दर्शनं मिथ्या मिथ्या हि तव शासनम् । मिथ्यादृष्टिर्नरो यस्त्वां स्तौति स पातकी भवेत् ॥ २९० ॥ रे निर्लज्ज दुराचारिन् ! विक्रीता किं त्वया त्रपा । कथं भ्रमसि नग्नस्त्वं मध्ये हि कुलयोषिताम् ॥ २१९ ॥ अस्मभ्यं शठ रे योगिन् ! त्वयापशकुनं कृतम् । अतोऽस्माकं कृते सिद्धिर्निश्चितं न भविष्यति ॥ २१२ ॥ संप्रति वर्तते घस्रः पदार्थदर्शनप्रदः । क्षपायां दर्शयिष्यामस्तुभ्यं तस्य फलं वयम् ॥२१३॥ इति तासां वचो दुष्टं श्रुत्वा कोपं मुनीश्वरः ।