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गौतमचरित्र। सवार होकर बड़ी प्रसन्नतासे भगवान महावीरस्वामीके दर्शनके लिये चले ॥७४॥ सबके साथ श्री महावीरस्वामीके शुभ समवसरणमें पहुंचकर महाराज श्रेणिकने मोक्षके अनन्त मुख देनेवाली भगवानकी स्तुति करना प्रारम्भ की ॥७॥ हे भगवन् ! संसारमें आप परम पात्र हैं इसलिये आपकी जय हो, आप संसारसागरसे पार करनेवाले हैं इसलिये आपकी जय हो, आप सबका हित करनेवाले हैं इसलिये आपकी जय हो और आप मुखके समुद्र हैं इसलिये आपकी जय हो ॥५६॥ आप संसारी जीवोंके परम मित्र हैं इसलिये हे परमेष्ठिन् ! आपके लिये नमस्कार हो, आप संसाररूपी महासागरसे पार होनेके लिये जहाज हैं इसलिये हे मोक्ष प्राप्त करा नेवाले भगवन् ! आपको नमस्कार हो ॥७७। आप गुणोंकी खानि हैं और संसारसे असन्त भयभीत हैं इसलिये आपको नमस्कार हो, आप कर्मरूपी शत्रुओंका नाश करनेवाले हैं और विषयरूपी विषको दूर करनेवाले हैं इसलिये आपको नमस्कार हो ॥७८॥ हे गुणोंके समुद्र ! हे स्वामिन् ! हे मुनियों में श्रेष्ठ! चचालासौ समारुह्य सुहस्तिनम् ॥७४॥ स समासाद्य वीरस्य समवसरणं शुभम् । स्तुतिं कर्तुं समारेभे निर्वाणसुखदायिकाम् ॥७॥ जय परमपात्र त्वं! जय संसारपारग! । जय सुहितकर्तस्त्वं जय त्वं ! सुखसागर ! ॥७६॥ जगत्परममित्राय परमेष्ठिन्नमोऽस्तु ते । भवाब्धितरपोताय शिवदायिन्नमोऽस्तु ते ॥७७॥ संसारभयभीताय नमस्तुभ्यं गुणाकर! । विषापह नमस्तुभ्यं कर्मशत्रुविनाशिने॥७८॥ गुणसरित्पते! स्वामिन् ! मुनिपुंगव भो निन! । कस्ते क्षमो गुणान् वक्तुं कविवाचा