________________
गौतमचरित्र |
अथ दूसरा अधिकार |
अथानंतर - भगवान् जिनेंद्रदेव दांतोंरूपी चंद्रमा की किररूपी जल से समस्त संसार के मलको प्रक्षालन करते हुए शुभ वचन कहने लगे ॥ १ ॥ हे राजा श्रेणिक ! तू मनको निश्वलकर सुन, मैं अब पाप पुण्य दोनोंसे प्रगट होनेवाले taarata पूर्व भवको कहता हूं || २ || अनेक देशों से शोभायमान इसी भरतक्षेत्रमें अनेक नगरोंसे सुशोभित एक अवंती नामका देश है || ३ || उस देशमें श्वेतवर्णके ऊंचे जिनालय ऐसे शोभायमान होते थे मानों मुनिराजोंके द्वारा इकट्ठे किये हुए मूर्तिमंत यशके समूह ही हों || ४ || उस देश में यता, धर्माद्रूपमनुत्तरं वरवधूः संसारविच्छेदता । धर्मात्स्वर्गफलं सुधीर्वरयशो लक्ष्मी मुक्तिप्रिया, तस्माच्छ्रेणिक ! धर्मएव सुमतिं जैने कुरु त्वं सदा ॥ ११४ ॥
इतिश्री गौतमचरिते श्रीश्रेणिकप्रश्नवर्णनं नाम प्रथमोऽधिकारः ।
२४]
अथ द्वितीयोऽधिकारः ।
अथ श्रीमज्जिनो देवोsवादीद्वचः शुभाकरम् । दंतचंद्रांशुनीरेण क्षालयन् जगतां मलम् ॥ १ ॥ मनो निश्चलमाधाय शृणु श्रेणिक भूपते ! | गौतमभवसंबंधं ब्रवीमि पापपुण्यजम् ॥२॥ इहैव भारते क्षेत्र नानादेशसमन्विते । अवन्तीविषयो भाति भूरिपत्तनराजितः ॥ ३ ॥ यत्र श्रीजिनसद्मानि भासते धवलानि वै । मूर्तिमंति यशांसीव मुनिनांचितानि च ॥ ४ ॥ यत्र पथिषु राजते पादपानां सुपंक्तयः ।