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बाल-लक्षण
एक-एक व्यक्ति बैठा है। अंतर्मुखी व्यक्ति अपने भीतर हैं, बाहर कोई सेतु नहीं बनाते। अगर दस बहिर्मुखी व्यक्ति बैठे हों तो दस नहीं बैठे हैं, भीड़ दस हजार की है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति बाकी दस से जुड़ रहा है। और हजार तरह के संबंध पैदा हो रहे हैं। अंतर्मुखी व्यक्ति अगर साथ भी होते हैं तो एक-दूसरे को अकेला छोड़ते हैं।
जिसके साथ होकर भी तुम अकेले रह सको, वही साथ करने योग्य है। जिसके साथ होकर भी तुम्हारा अकेलापन दूषित न हो, जिसके साथ होकर भी तुम्हारे अकेलेपन का व्यभिचार न हो; तुम्हारा कुंआरापन कायम रहे; तुम्हारी तन्हाई, तुम्हारा एकांत शुद्ध रहे; जो अकारण तुम्हारी तन्हाई में प्रवेश न करे; जो तुम्हारी सीमाओं का आदर करे; जो तुम्हारे एकांत को व्यर्थ ही नष्ट-भ्रष्ट न करे; जो आक्रामक न हो; तुम जब बुलाओ तो पास आए, उतना ही पास आए जितना तुम बुलाओ; तुम जब अपने भीतर जाओ तो तुम्हें अकेला छोड़ दे...।
बुद्ध ने भिक्षुओं का बड़ा संघ खड़ा किया। बुद्ध के भिक्षुओं के संघ की परिभाषा यही है : ऐसे लोगों का संग-साथ, जो संग होते भी संग नहीं होते; जिनका अकेलापन कायम रहता है। क्योंकि अंतर्मुखी व्यक्ति जो अपने भीतर जा रहे हैं, वे दूसरे से संबंध नहीं बनाते ।
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दस हजार भिक्षु बुद्ध के साथ चलते थे। बड़ी भीड़ थी। एक पूरा गांव था। लेकिन ऐसा सन्नाटा छाया रहता था, जैसे बुद्ध अकेले चलते हों । दस हजार लोग चलते थे, अकेले-अकेले चलते थे। दस हजार लोग साथ-साथ नहीं चलते थे । अपने-अपने भीतर जा रहे हैं। अपनी-अपनी मस्ती में हैं। दूसरे से सेतु नहीं बनाते हैं। दूसरे से संबंध नाममात्र का है। इतना ही संबंध है कि दोनों ही एक ही अंतर्यात्रा पर जा रहे हैं। लेकिन अंतर्यात्रा का मार्ग राजपथ जैसा नहीं है, पगडंडियों जैसा है। और हर व्यक्ति को अपने भीतर की पगडंडी अपनी ही खोजनी पड़ती है।
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यह हुजूमे - गम है महदूदे - हुदूदे - जिंदगी
आदमी आया है तनहा और तनहा जाएगा
जिंदगी तो दुखों की एक भीड़ है; दुखों का एक समूह है। और जितने तुम समूह में बंधते हो, उतने तुम इस दुखों के समूह में ही बंधते हो। और एक बात भूलती चली जाती है कि तुम अकेले आए हो और अकेले जाओगे।
काश! तुम अकेलेपन को यहां भी पवित्र रख सको, तो तुम संन्यस्त हो । संन्यासी वह नहीं है, जो जंगल के एकांत में चला गया। संन्यासी वह है, जिसने भीड़ में अपने एकांत को पा लिया। जो साथ होकर भी साथ नहीं । जो साथ होकर भी दूर-दूर है। जो पास होकर भी दूर-दूर है। वह अपने में है, तुम अपने में हो । तो ऐसे मित्र खोजना, जो तुम्हें बाहर न खींचें । इसलिए बुद्ध कहते हैं, 'मूढ़ का साथ अच्छा नहीं ।'
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