Book Title: Dhammapada 03
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 206
________________ जागरण और आत्मक्रांति करीब हैं। उनको तुम निंदा करते हुए पाओगे। उनका कुल रस निंदा-रस है। शास्त्रज्ञों ने नौ रस गिनाए हैं, निंदा को क्यों छोड़ दिया, पता नहीं! साधुसंन्यासियों का तो रस ही वही है—निंदा। सारा संसार गलत है, पापी है। सारा संसार नर्क की तरफ जा रहा है। यह वे बदला ले रहे हैं तुमसे। तुमने उन्हें हराया, तुमने उन्हें मिटाया, तुमने उनकी पहुंच को पहुंचने न दिया, तुमने उनके हाथ अंगूरों तक न पहुंचने दिए। अब उन्होंने अपने अहंकार के लिए नई सुरक्षा कर ली-अंगूर खट्टे हैं और तुम नासमझ हो, इसलिए अंगूरों के पीछे पड़े हो। हम इस क्षणभंगुर संपदा की खोज नहीं करते। हम शाश्वत की खोज कर रहे हैं। हम तो नित्य संपदा की खोज कर रहे हैं। हम कंकड़-पत्थरों की खोज नहीं करते। ____ मगर तुम कंकड़-पत्थर पाने में भी हार गए। जिन हीरे-जवाहरातों की तुम बातें कर रहे हो, वे कहीं मन का समझाना तो नहीं; सांत्वना तो नहीं? और दिखाई कहीं भी नहीं पड़ता कि तुम्हारे जीवन में कोई किरण उतर रही हो। ___तो मैं तुमसे कहता हूं, लोभ की हार को तुम लोभ की समझ मत समझ लेना। लोभ की पराजय को तुम त्याग का आवरण मत दे देना। बहुत धोखा संभव है। और जितने सूक्ष्म जगत में प्रवेश करते हो, उतने ही धोखे बारीक होते चले जाते हैं। तुम्हारे भोग की पराजय कहीं त्याग का आवरण लेकर फिर न बच जाए। तुम भोग को ठीक से देख लेना; पराजय की फिक्र छोड़ो। मैं तुमसे कहता हूं, अगर तुम जीत भी जाते तो भी जीत कुछ न लाती। ___तुम जीते हुए आदमियों से पूछो, बुद्ध-महावीर से पूछो। सब था उनके पास। लोभ उनका हारा हुआ न था—याद रखना-जीता हुआ था। साम्राज्य था, धन-दौलत थी, घर-द्वार था, सुंदर पत्नियां थीं, सुंदर बच्चे थे। सब कुछ था। भरा-पूरा था। हाथ में अंगूर थे और इन अंगूरों को छोड़कर वे चल पड़े। और अंगूर खट्टे थे, ऐसा भी नहीं, मीठे थे। __ अब बुद्ध अगर खोजें भी तो यशोधरा से सुंदर पत्नी खोज-पाएंगे? अंगूर मीठे थे, मैं कहता हूं। महावीर अगर खोजें भी तो और क्या सुंदर संसार बना सकेंगे, जो उन्हें बना-बनाया मिला था? अंगूर हाथ में थे और मीठे थे। लोभ की पराजय के कारण वे छोड़कर नहीं गए थे, क्योंकि लोभ तो जीती हुई हालत में था। लोभ को देखकर गए थे। लोभ की जीत भी व्यर्थ है। लोभ की हार तो व्यर्थ होंगी ही, लोभ की जीत भी व्यर्थ है। लोभ का जहर तो व्यर्थ होगा ही, लोभ का अमृत भी व्यर्थ है; क्योंकि दोनों ही सपने हैं। जागने पर पता चलता है, दोनों ही व्यर्थ हैं। असली बात जाग है, जागरण है। हमने सिकंदरों को नहीं पूजा, क्योंकि वे एक कदम चूक गए। हमने बुद्धों को पूजा, क्योंकि उन्होंने सिकंदर के आगे का कदम उठा लिया। ध्यान रखना, कभी-कभी स्थितियां समान मालूम पड़ती हैं, इससे धोखे में मत पड़ जाना। 189

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