Book Title: Dhammapada 03
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 253
________________ एस धम्मो सनंतना की भी सवारी हो गई। अभी दुख तुम पर सवार है। तुम भूल ही गए हो कि दुख तुम्हारी छाती पर बैठा है, तुम्हारे कंधों पर बैठा है, तुम्हारे सिर पर बैठा है, तुम उसके बोझ के नीचे दबे जा रहे हो। बुद्ध पुरुषों ने दुख को भी सवारी बना ली। वे उस पर सवार हो गए। क्या मतलब है मेरा? मेरा मतलब है कि उन्होंने दुख को जागने के राह पर काम में ले लिया। ___और ध्यान रखना, जब तुम जिसे सुख कहते हो, होता है, तो जागना मुश्किल होता है। क्योंकि सुख में तो आदमी सुख की शराब में डूब जाता है। सुख में तो मजे से भूल जाता है सब-अपने को भी भूल जाता है। लेकिन दुख में दुख का कांटा गड़ता है। पैर में कांटा गड़ता हो, कैसे भूलोगे? सिर में दर्द हो, कैसे भूलोगे? पीड़ा हो तो भूलोगे कैसे? पीड़ा हो तो भूलने के लिए बड़े उपाय करने पड़ते हैं, तब भूल पाओगे। सुख में बिना उपाय के भूल जाते हो। शायद सुख की आकांक्षा तुम इसीलिए करते हो कि बिना उपाय के भूलने की सुविधा मिल जाती है। जब तुम सुख नहीं खोज पाते, तब तुम विस्मरण के दूसरे उपाय खोजते हो। लेकिन क्या जिंदगी का सार-निचोड़ यही है कि तुम अपने को भुला दो? तो यह तो हुए न हुए, बराबर हुआ। ___जागना। भुलाने की चेष्टा बंद करना। जब दुख आए, उसे देखना। जब दुख आए तो बैठकर उसका निरीक्षण करना। जब पैर में कांटा चुभे और पीड़ा तुम्हारे प्राणों में लहराने लगे तो भागना मत, उसका सत्संग करना। कहना, पीड़ा आ गई, रुक! हम तुझे भर आंख देख लें। उसके चारों तरफ परिक्रमा करना, जैसे मंदिर में परिक्रमा करते हो। उसे हाथ में लेकर देखना, जैसे हीरे-जवाहरात को देखते हो। दुख के पारखी बनो। उसका विश्लेषण करो-कैसे आया? कहां से आया? क्यों आया? और तुम दुख का विश्लेषण करते-करते ही पाओगे, दुख को देखते-देखते ही पाओगे, एक दूरी आ गई तुम में और दुख में। दुख कहीं दूर पड़ा रह गया-बड़े फासले पर। अलंघ्य खाई है तुम्हारे और दुख के बीच में। चाह...चाहत के सेतु से जुड़े थे। जब गौर से देखते हो, चाहत का सेतु गिर जाता है। क्योंकि जब तुम परिपूर्ण रूप से मौजूद होकर देखते हो, तुम्हारे भीतर कोई चाह नहीं उठती। क्योंकि जो ऊर्जा जागरण बनती है, वही ऊर्जा चाह बनती है। या तो चाह बना लो, या जाग बना लो। दोनों एक साथ नहीं होते। चाह से भरे आदमी में जागरण नहीं होता, जागरण से भरे क्षण में चाह नहीं होती। ये दोनों एक साथ होते ही नहीं। यह जीवन का अंतर्निहित विज्ञान है। तो जब भी तुम जागोगे, तुम अचानक पाओगे, तुम चाह से मुक्त हो गए। एक क्षण को तुम भी बुद्ध हुए। एक क्षण को तुमने भी जिनत्व छुआ। एक क्षण को तुम भी उड़े आकाश में। एक क्षण को धरा तुमसे भी छूटी। एक क्षण को गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव न रहा। एक क्षण को तुम पर भी प्रसाद की वर्षा हुई। 236

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