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मंथन कर, मंथन कर
गिरो स्वेच्छा से। मरो स्वेच्छा से। मिटो स्वेच्छा से। तुम्हारे मिटने में ही तुम्हारी नियति का सूर्योदय है।
चौथा प्रश्न:
आप अपने साधकों को सीधा-सादा ही करने को कहते हैं, पर हम फिर-फिर व्याख्या कर लेते हैं और अपनी व्याख्या के अनुसार ही चलते हैं। कृपा कर समझाएं कि हम अपनी व्याख्या से अपने को कैसे बचाएं?
कु छ बुनियादी कठिनाइयां हैं। धीरे-धीरे ही तुम उन कठिनाइयों के प्रति सजग
हो पाओगे। जल्दी की भी नहीं जा सकती। समय लगता ही है। बहुत बार तुम व्याख्याएं करोगे, बहुत बार व्याख्याओं को करके तुम मुझे चूकोगे, तभी धीरे-धीरे तुम्हें यह होश आना शुरू होगा कि तुम्हारी व्याख्याओं के कारण तुम मेरे पास आ ही नहीं पा रहे हो। तुम्हारी व्याख्याओं का जाल तुम्हें घेरे हुए है। तुम मुझे सुनते ही नहीं। तुम मेरे शब्दों में अपने अर्थ निकाल लेते हो। ___यह स्वाभाविक है। क्योंकि शब्द तो मेरी तरफ से आते हैं, अर्थ तो तुम्ही उन में डालोगे। मैं शब्द ही दे सकता हूं, सुनोगे तो तुम, गुनोगे तो तुम, चलोगे तो तुम।
तो पहले तो सुनते क्षण में ही भूल हो जाती है। धीरे-धीरे समझ आएगी।
सुनते समय विचारना मत, सिर्फ सुनना। सुनना बड़ी कला है; बड़ी से बड़ी कला है। इतनी बड़ी कि बुद्ध पुरुषों ने कहा है कि अगर कोई ठीक से सुन ले तो मुक्ति हो जाती है। महावीर ने कहा है कि तुम श्रावक अगर ठीक से हो ज़ाओ-श्रावक यानी सुनने वाले, श्रवण करने में कुशल-तो तुम मुक्त हो गए। कुछ और करने की जरूरत भी नहीं है, क्योंकि मुक्त तो तुम हो ही। किसी बुद्ध पुरुष से जरा सी अपनी पहचान ले लेनी है। किसी बुद्ध पुरुष के दर्पण में जरा अपने चेहरे को पहचान लेना है।
विवेकानंद एक कहानी कहते थेः एक सिंहनी गर्भवती थी, छलांग लगाती थी एक टीले से दूसरे टीले पर कि उसका बच्चा जन्म गया। नीचे से भेड़ों-बकरियों का एक झुंड जा रहा था। वह बच्चा उसमें गिर गया, भेड़ों के साथ चल पड़ा। वह भेड़ों के साथ ही बड़ा हुआ। वह भूल ही गया कि सिंह है। कोई उपाय भी न था जानने का। वह भेड़ों की तरह ही रिरियाता, रोता, भागता, भेड़ों की भीड़ में ही घसिटता। बड़ा हो गया, लेकिन शाकाहारी था तो शाकाहारी ही रहा। क्योंकि वे भेड़ें तो शाकाहारी थीं।
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