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मंथन कर, मंथन कर . नहीं। फूल खिलता है, क्या करते हो तुम–अर्थ निकालते हो? अर्थ वहां कुछ है ही नहीं। विराट की तरफ इंगित हैं, इशारे हैं, अर्थ नहीं। ____ मैं तुमसे जब बोल रहा हूं तो मेरे साथ तुम वही व्यवहार करो-सदव्यवहार, जो तुम कोयल के साथ करते हो, पानी के झरने के साथ करते हो। सुनो मुझे। जरा मुझे जगह दो-डरते-डरते ही सही, पूरा न सही तो न सही, थोड़ा सा द्वार खोलो, थोड़ी सी रंध्र मुझे दो। ___ मैं कोई खबर लाया हं, जो दर की है और कछ ऐसी है कि तुम्हारे पास उसे समझने के लिए कोई शब्द नहीं। मेरे पास भी उसे समझाने के लिए कोई शब्द नहीं हैं। यह मैं जो बोल रहा हूं ऐसे ही है, जैसे गूंगा इशारे कर रहा हो। और कठिनाई बढ़ जाती है, अगर तुम भी बहरे हो, तुम अंधे हो तो और कठिनाई बढ़ जाती है। मैं गूंगा, तुम बहरे-अंधे; और कठिनाई बढ़ जाती है।
सभी बुद्ध पुरुष गूंगेपन का अनुभव करते हैं : गूंगे केरी सरकरा। स्वाद तो ले आते हैं, लेकिन स्वाद इतना बड़ा है, स्वाद इतना विराट है, स्वाद इतना विशाल है कि कोई शब्द उसमें कारगर नहीं हो पाता। किसी शब्द में वह समाता नहीं।
शब्द को डुबो-डुबोकर उस विशालता में तुम्हें हम देते हैं, तुम जल्दी करके उसे बिगाड़ मत लेना। नाजुक है, हिफाजत की जरूरत है। सुन लो निमंत्रण को, जल्दी मत करो सोचने की। तुमसे कोई कह भी नहीं रहा है कि तुम कुछ करो।
मुझसे लोग पूछते हैं, आप इतना बोले चले जाते हैं!
करूं भी क्या? तुम जब तक न सुनोगे, बोलना ही पड़ेगा। यह शिकायत मेरे ऊपर न रहेगी, यह शिकवा मुझसे न रहेगा कि मैं नहीं बोला। अगर तुम चूके तो तुम अपने कारण चूकोगे, मेरे कारण नहीं चूक सकते।
पंख खुल जाते स्वयं ही
शून्य का पाकर निमंत्रण विस्मरण होता सहज ही
नीड़ का आवास उस क्षण तुम मेरे निमंत्रण को भर सुन लो। कोई बहुत दूर की पुकार लाया हूं। कोई गीत लाया हूं, जो तुमने सुना नहीं। कोई स्वर लाया हूं, जो अपरिचित है। कोई छंद, जिससे तुम्हारी पहचान नहीं। ___ सुनो! सुनते समय विचारो मत। विचार बीच में आ जाएं, हटा दो। उनसे कहो, क्षमा करो, थोड़ी देर बाद तुम आ जाना। अगर तुम थोड़ा भी हटा पाए, थोड़ी भी जगह मिली, कहीं से थोड़ी सी भी किरणें तुम में प्रविष्ट हो गयीं, वे तुम्हें रूपांतरित कर देंगी।
मेरा बहुत बड़ा जोर इस बात पर है कि तुम ठीक से सुन लो। तुम कुछ करो, इस पर मेरा जोर ही नहीं है।
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