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है। पीए हुओं के आसपास का वातावरण शराब है।
थोड़ा तुम राह दो, ताकि जो मैं डाल रहा हूं, उड़ेल रहा हूं, वह हलक के नीचे उतर जाए। वह तुम्हारे जरा कंठ के नीचे चला जाए।
वह
खतरा यही है कि कहीं कंठ में न अटक जाए। कंठ में अटक गया तो तुम वही दूसरों को समझाने लगोगे - बिना समझे स्वयं । कंठ में जो अटक जाता है, बाहर आने की कोशिश करता है। उससे वमन होता है, उलटी होती है। कंठ के नीचे जो उतर जाता है, वह तुम्हारा मांस-मज्जा बन जाता है, वह तुम्हारा जीवंत अंग हो जाता है।
मंथन कर, मंथन कर
आखिरी सवाल :
आ
प्रवचन या दर्शन में जो प्रश्न पूछे जाते हैं, उनमें से लगभग अस्सी प्रतिशत के बारे में मुझे लगता है कि वे मेरे ही हैं, पंद्रह प्रतिशत के लिए ईर्ष्या होती है कि काश वे मेरे होते; और शेष . के लिए संतोष होता है कि वे मेरे नहीं हैं। ऐसा क्यों है ?
थोड़े गौर से देखना, थोड़े और जागकर देखना तो अस्सी प्रतिशत पर बात रुकेगी नहीं। और थोड़ा गौर से देखोगे तो तुम पाओगे कि पांच प्रतिशत को, जिन्हें तुम सोचते हो कि मेरे नहीं हैं, वे भी तुम्हारे हैं । और थोड़े गहरे जाओगे तो पंद्रह प्रतिशत के लिए, जिन्हें सुनकर तुम्हें लगता है ईर्ष्या होती है कि काश मेरे होते, वे भी तुम्हारे हैं।
आदमी-आदमी में फर्क क्या है ? ढंग अलग होंगे पूछने के, बाकी प्रश्न वही हैं। रूप-रेखा अलग होगी, बात अलग नहीं है। हर आदमी परमात्मा की खोज में
- हर आदमी! चाहे उसने पूछा हो, चाहे न पूछा हो; चाहे उसे खुद भी पता हो, न पता हो । जैसे हर बीज वृक्ष की तलाश है, वृक्ष होना चाहता है; वैसे हर आदमी परमात्मा होना चाहता है I
अगर तुम मुझसे पूछो तुम्हारे प्रश्नों के बाबत, तो मैं उनके ढंग अलग पाता हूं, रंग अलग पाता हूं, आवरण अलग पाता हूं। लेकिन जैसे ही प्रश्न के भीतर प्रवेश करो, वे सब एक हैं। इसलिए तो तुम्हारे प्रश्न भी सुनने की मुझे जरूरत नहीं और मैं जवाब दिए चला जाता हूं। मैं उन्हें जानता ही हूं।
एक आदमी में झांक लिया तो सब आदमियों में झांक लिया । एक आदमी के प्रश्न पहचान लिए तो सारी आदमियत के प्रश्न पहचान लिए ।
और अगर थोड़े गहरे गए तो तुम यही न पाओगे कि दूसरों के द्वारा पूछे गए
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