Book Title: Dhammapada 03
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 256
________________ मंथन कर, मंथन कर है! हंसना मत; कहानी तुम्हारी है। और किसी न किसी दिन अदालत की पकड़ में तुम आओगे। उस अदालत को लोग परमात्मा कहते हैं। किसी न किसी दिन परमात्मा की अदालत में खड़े होओगे, तो तुम भी ऐसी मुसीबत में पड़ोगे कि बता न पा पाओगे, कौन से खेत थे, कौन सी भैंसें थीं। सिकंदर को भी कंधे उचकाने पड़ेंगे। क्योंकि सब खेत काल्पनिक थे और सब भैंसें काल्पनिक थीं। सब दोस्त काल्पनिक थे, सब दुश्मन काल्पनिक थे। कुछ हुआ न था। आकांक्षाओं में मुठभेड़ हो गई थी। वासनाएं लड़ गयीं थीं। भविष्य की योजनाओं में संघर्ष हो गया था। वर्तमान में तो कुछ भी न था, हाथ तो खाली थे। लेकिन आदमी आकांक्षाओं से भरा जीता है तब तक, जब तक कि थोड़ा जागकर देखता नहीं। थोड़ी आंख के किनारे से जरा जागकर अपनी जिंदगी को देखो। थोड़ा सही! तुम्हें हंसी आए बिना न रहेगी। जिंदगी तुम्हें एक मखौल मालूम होगी, एक मजाक मालूम होगी। किसी ने जैसे व्यंग किया। जागा हुआ व्यक्ति पहला तो अनुभव यह करता है कि यहां दुख और सुख का कोई कारण ही नहीं है, सब कल्पना का जाल है। और जैसे ही यह समझ में आता है, एक नया आकाश भीतर अपने द्वार खोल देता है। तो मैं ही हूं; न कोई सुख है, न कोई दुख है। इस मैं की प्रतीति, इस स्वयं के बोध में ही आनंद है, शांति है। आनंद न तो सुख है, न दुख। आनंद तुम्हारे सुख का जोड़ नहीं है। तुम आनंद को गलत मत समझ लेना। तुम्हारे सुखों का संग्रह नहीं है आनंद, तुम्हारे सुखों की राशियां नहीं है आनंद, तुम्हारे सुख से आनंद का कोई संबंध नहीं है। सुख और दुख तो एक ही साथ बंधे हैं। हर सुख के पीछे दुख बंधा है, हर दुख के पीछे सुख बंधा है। आनंद निर्द्वद्व है; द्वैत नहीं है वहां। न कोई सुख है, न कोई दुख है। ऐसी शांति है, जैसी तूफान के बाद अनुभव होती है। ऐसी शून्यता है, जैसी मृत्यु में अनुभव होती है। . और उस जागरण में तुम्हें न तो यह पता चलेगा कि दूसरों ने तुम्हारा कल्याण किया; न यह पता चलेगा कि अकल्याण किया। दूसरों ने कुछ किया ही नहीं। खेत थे ही नहीं, जिसमें वे भैंसें छोड़ देते। दूसरों ने कुछ किया ही नहीं। अब और अगर तुम इस जागरण में गहरे जाओगे तो पाओगे कि दूसरा भी नहीं है। वह भी तुम्हारी कल्पना का ही हिस्सा था। वह भी तुमने माना था। ___हम अलग-थलग नहीं हैं, भिन्न-भिन्न नहीं हैं, हम एक ही महा विस्तीर्ण चेतना के भाग हैं। मैंने सुना है, एक केंचुआ कीचड़ में सरक रहा था कि उसे दूसरा केंचुआ मिल गया। उसने कहा, मैं बड़े दिन से तलाश में था। अकेला-अकेला ऊब गया हूं। विवाह की आकांक्षा है। उस दूसरे केंचुए ने कहा, नासमझ ! मैं तेरा ही दूसरा हिस्सा हूं। केंचुए के दोनों 239

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