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एस धम्मो सनंतनो
वही का वही रह गया। जीवन में कोई गति न हुई, कोई विकास न हुआ। जीवन उठा नहीं, पंख न लगे। ___ अगर मूढ़ ह तो यही तुम्हारे प्राणों की दशा होगी। अगर थोड़ा सा जीवन में समझ का उपयोग किया तो तुम मृत्यु को भी महोत्सव की तरह पाओगे। तुम्हारे
ओंठों पर एक छंद होगा तृप्ति का, तुम्हारे प्राणों में एक सुगंध होगी पहुंच जाने की। तुम्हारे चारों तरफ एक हवा होगी, एक आभा-मंडल होगा कि तुम स्वीकृत हो गए। अस्तित्व ने तुम्हें मान्यता दे दी। यही सिद्ध होने का अर्थ है।
आखिरी सवालः
आप कहते हैं, प्रत्येक व्यक्ति अनूठा और अद्वितीय है; और यह भी कहते हैं कि व्यक्ति समष्टि से अविच्छिन्न है, दर असल व्यष्टि ही है। क्या इस वक्तव्य पर कुछ प्रकाश डालने की कृपा करेंगे।
दो शब्द ठीक से समझ लोः समाज और समष्टि। -समाज का अर्थ है, आदमियों ने अपनी मूढ़ता, अपने अज्ञान, अपने अहंकार में जो ताना-बाना बुना है। आदमियों की जो भीड़ है, भीड़ का जो मन है, सभी आदमियों के अज्ञान का जो जोड़ है, अहंकार का जो जोड़ है, वह समाज है।
समष्टि से अर्थ है, परमात्मा, अस्तित्व। उसमें आदमी का ही सवाल नहीं है, वृक्ष भी सम्मिलित हैं, चट्टानें भी, चांद-तारे भी! सब कुछ सम्मिलित है। समष्टि का अर्थ है, जो है-सारा का सारा। अगर तुम जो है, उसके साथ एक हो जाओ, तो उसी को बुद्ध धर्म कहते हैं, धम्म कहते हैं। अगर जो है, यह जो सारा अस्तित्व है, इसके साथ तुम्हारा संघर्ष छूट जाए, तुम इसके साथ एक हो जाओ और तल्लीन, डूबे हुए, इसकी मस्ती में मस्त, इसको तुम पी लो, तो तुम परम शांति को, परम आनंद को उपलब्ध हो जाओगे। __ दूसरी एक भीड़ आदमियों की है। वह एक दूसरा गिरोह है, जिसने सारे अस्तित्व की फिक्र छोड़ दी है और अपने ही नियम बना लिए हैं। आदमियों की भीड़ ने अपना ही शास्त्र बना लिया है। अपनी ही रीति-रिवाज, परंपरा बना ली है। वह अज्ञानियों का अस्तित्व के ऊपर जबर्दस्ती आरोपण है। ____तो जब मैं कहता हूं, व्यक्ति अनूठा है, तो मैं यह कह रहा हूं कि एक व्यक्ति जैसा दूसरा व्यक्ति नहीं है समाज में। प्रत्येक व्यक्ति अनूठा है। और प्रत्येक व्यक्ति को अनूठे होने की हिम्मत रखनी चाहिए। इतना साहस रखना चाहिए कि भीड़ तुम्हें
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