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जागरण और आत्मक्रांति
पहला प्रश्नः
लोभ और लाभ का रास्ता ईर्ष्या और घृणा से, भय और दुश्चिता से पटा पड़ा है; वह जीवन में जहर घोलकर रख देता है, ऐसा मेरे लंबे जीवन का अनुभव है। फिर भी क्या कारण है कि किसी न किसी रूप में लाभ की दृष्टि बनी ही रहती है?
लो भ से जीवन में दुख आया, लोभ से जीवन में जहर मिला, लोभ से जीवन में
विपदाएं आयीं, कष्ट-चिंताएं आयीं, अगर ऐसा समझकर लोभ को छोड़ा तो लोभ को नहीं छोड़ा। क्योंकि यह समझ ही लोभ की है।
जहां अमृत की आकांक्षा की थी, वहां जहर पाया-हानि हुई, लाभ न हुआ। जहां सुख चाहा था, वहां दुख मिला—हानि हुई, लाभ न हुआ। सोचा था चैन और सुख और शांति का जीवन होगा, दुश्चिता से पट गया-हानि हुई, लाभ न हुआ। ____ लोभ में हानि पाई इसलिए लोभ से छूटने चले, यह तो फिर लोभ के हाथ में ही पड़ जाना हुआ। हानि दिखाई पड़ती है लोभ की दृष्टि को।
इसे समझने की कोशिश करना, बारीक है। कौन है जिसको दिखाई पड़ता है कि हानि हुई? कौन कहता है तुमसे कि हानि हुई? लोभ, लोभ की वृत्ति ही तुम्हें
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