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लाभ-पथ नहीं, निर्वाण-पथ
बाहर मत खोजना।
मूढ़ता बाहर कारण खोजती है और भटक जाती है। ज्ञान भीतर कारण खोजता है और सम्हल जाता है। सब तुम्हारे भीतर है-सुख भी, दुख भी, सुख और दुख के पार जाना भी।
'मूढ़ का जितना भी ज्ञान होता है, वह उसके ही अनर्थ के लिए होता है। वह मूढ़ के मस्तिष्क को नीचे गिराकर उसके शुक्लांश (शुभ) को नष्ट कर देता है।'
ऐसा नहीं है कि मूढ़ के पास ज्ञान नहीं होता। यह बड़े मजे की बात है। तुम सोचते हो, मूढ़ वह, जिसके पास ज्ञान नहीं; नहीं। मूढ़ों में बड़े पंडित तुम्हें मिल जाएंगे। मूढ़ता भीतर रह जाती है, पांडित्य ऊपर से आवरण बन जाता है। और मूढ़ता शोभायमान हो जाती है। और मूढ़ता में इत्र छिड़क दिए, सुगंध भी आने लगी। और मूढ़ता पर सोने मढ़ दिए, हीरे-जवाहरात जड़ दिए। मूढ़ता भी पांडित्य से अपना श्रृंगार करती है। ___ बुद्ध कहते हैं, 'मूढ़ का जितना भी ज्ञान होता है...।'
नहीं होता, ऐसा नहीं; लेकिन एक बात तुम उसमें पाओगे, उसका ज्ञान उसके ही अनर्थ के लिए होता है। उसके हाथ की तलवार उसको ही जख्म पहुंचाती है। जिस ज्ञान से नौका बन सकती थी, जीवन के सागर के पार हुआ जा सकता था, वही ज्ञान गले में लटकी हुई चट्टान हो जाता है। वही ज्ञान उसे डुबाता है। अगर मूढ़ के हाथ में शास्त्र लग जाए, तो वह मूढ़ के हाथ में लगी तलवार है। मूढ़ के हाथ में शस्त्र लगे तो, शास्त्र लगे तो, आत्मघाती है। अपना ही अहित कर लेगा।
अब तुम थोड़ा सोचो, तुम्हारे पास जो भी तुमने ज्ञान संचित कर लिया है, उसका तुमने क्या उपयोग किया है ? उससे तुमने अपनी मूढ़ता को बचाने का उपयोग किया है या मिटाने का उपयोग किया है? उस प्रकाश में तुमने अपने अंधेरे को जलाया है या बचाया है?
अगर तुमने ज्ञान का सम्यक उपयोग किया तो तुम अपने अज्ञान को स्वीकार करोगे। अगर तुमने ज्ञान का दुरुपयोग किया तो तुम अपने अज्ञान को छिपा लोगे
और अपने ज्ञान की घोषणा करोगे। और एक बार तुम्हें यह वहम सवार हो जाए कि तुमने जान लिया, तो तुम जानने की दुनिया से हजारों कोसों दूर पड़ गए।
उस शाम से डरो जो सितारों की छांव में
आती है एक हसीन अंधेरा लिए हुए तुम्हारी नजर सितारों पर रहे, कहीं धोखा न हो जाए।
उस शाम से डरो जो सितारों की छांव में एक घना अंधेरा भी आ रहा है। सितारों पर आंख रही, धोखा खा जाओगे।
आती है एक हसीन अंधेरा लिए हुए एक बड़ा प्यारा अंधेरा लेकर आ जाती है। तुम सितारों में उलझे रहते हो, अंधेरा
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