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पुण्यातीत ले जाए, वही साधु-कर्म पाप की एक दूसरी परीक्षा भी स्मरण रख लो, फिर हम सूत्र में प्रवेश करें।
साधारणतः लोग सोचते हैं, दूसरे को कष्ट देना पाप है। यह नजर भी दूसरे पर हो गई। यह नजर भी धर्म की न रही। धर्म का कोई प्रयोजन दूसरे से नहीं। धर्म का संबंध स्वयं से है। स्वयं को दुख देना पाप है। ___हां, जो स्वयं को दुख देता है, उससे बहुतों को दुख मिलता है-यह बात और। जो स्वयं को ही दुख देता है, वह किसको दुख न देगा? जो स्वयं दुर्गंध से भरा है, उसके पास जो भी आएंगे, उनको दुर्गंध झेलनी पड़ेगी। लेकिन वह बात गौण है।
तुम दूसरों की फिक्र मत करना। क्योंकि दूसरों की फिक्र से एक बहुत उपद्रव पैदा होता है, वह यह कि तुम भीतर की दुर्गंध तो नहीं मिटाते, बाहर से इत्र-फुलेल छिड़क लेते हो। तो दूसरे को दुर्गंध नहीं मिलती, लेकिन तुम तो दुर्गंध में ही जीयोगे। अंतरात्मा तक इत्र को ले जाने की कोई सुविधा नहीं है। वहां तो जब भीतर की सुवास पैदा होगी, तभी सुवास होगी। वहां धोखा नहीं चलेगा। वहां बाजार से खरीदी गई सुगंधियां काम न आएंगी।
- इसलिए दूसरी बात खयाल रख लो कि पाप का कोई सीधा संबंध दूसरे से नहीं है, न पुण्य का कोई सीधा संबंध दूसरे से है।
पुण्य का अर्थ है : तुम्हारे आनंद की, अहोभाव की दशा। 'पुण्य का अर्थ है : तुम्हारा नाचता हुआ, आनंदमग्न चैतन्य। पुण्य का अर्थ है : तुम्हारे भीतर की बांसुरी बजती हुई।
तो स्वभावतः दूसरे पर भी वर्षा होगी तुम्हारे संगीत की। यह सहज ही हो जाएगी। इसका हिसाब ही क्या रखना! तुम्हारे भीतर की बांसुरी बजती होगी तो दूसरों पर वर्षा सहज ही हो जाएगी। इसका हिसाब ही नहीं रखना। इसकी बात भूल भी जाओ तो भी चलेगा। पुण्य तुमसे होते रहेंगे। __असली पुण्य अगर हो गया अपने पास आने का, तो शेष सब पुण्य छाया की तरह चले आते हैं। और असली पाप अगर हो गया अपने से दूर जाने का, तो शेष सब पाप छाया की तरह चले आते हैं।
साधारणतः धर्मगुरु तुम्हें समझाते हैं, दूसरे की सेवा करो-पुण्य; दूसरे को दुख दो-पाप। मैं तुमसे यह नहीं कहता। बुद्धों ने तुमसे यह कभी नहीं कहा है। उन्होंने कहा है, ऐसा कृत्य पाप है, जो तुम्हें दुख से भर जाए, जो तुम्हें पछतावे से भर जाए, जिसे करके तुम जार-जार रोओ, जिसे करके तुम चाहो कि अनकिया हो जाए, जिसे करके तुम पछताओ, जिसे करके फिर तुम कभी चैन न पा सको, जिसका कांटा गड़ता ही रहे, गड़ता ही रहे। भला करते वक्त पता न चले–क्योंकि हम करने की धुन में होते हैं-बाद में पता चले। हो सकता है, करते वक्त पता न चले, क्योंकि कृत्य तब बीज की तरह होता है। थोड़ा समय लगता है, तब फसल पकती है, तब तुम्हें कांटे चुभते हैं। देर-अबेर पता चले, लेकिन एक बात पता चलेगी कि
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