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मौन में खिले मुखरता
है; हजारों लोगों को प्रसन्न करना है। इसलिए तो इतना पाखंड है।
वही व्यक्ति सच्चा हो सकता है, जिसने इसकी चिंता छोड़ दी कि दूसरे क्या सोचते हैं। मगर उस आदमी को हम पागल कहते हैं, जो इसकी चिंता छोड़ देता है कि दूसरे क्या कहते हैं। इसलिए सत्य के खोजी के जीवन में ऐसा पड़ाव आता है जब उसे करीब-करीब पागल हो जाना पड़ता है; फिक्र छोड़ देता है कि दूसरे क्या कहते हैं, हंसते हैं, मजाक करते हैं। ऐसे जीने लगता है जैसे दूसरे हैं ही नहीं।' ___ज्यां पाल सार्च का बड़ा प्रसिद्ध वचन है : दूसरा नरक है, दि अदर इज हेल। अकेले में तो आदमी स्वर्ग में हो जाता है। दूसरे की मौजूदगी तत्क्षण उपद्रव शुरू कर देती है। दूसरे की मौजूदगी तनाव पैदा करती है। तुम बेचैन हो जाते हो; तुम केंद्र से डिग जाते हो; भीतर सब हलन-चलन शुरू हो जाता है।
स्वाभाविक है कि बोलते ही लगे कि बेईमानी हो गई।
तो पहले तो मौन को साधो। पहले तो अपनी ऊर्जा को मौन में उतरने दो, गहराने दो मौन को। कभी ऐसी घड़ी भी आएगी-जरूर आती है; न आए तो कुछ हर्ज नहीं है, पर आती है।
महावीर बारह वर्ष मौन रहे, फिर लौट आए बस्ती में जंगलों से वापस, फिर बोलने लगे। बुद्ध छह वर्ष तक एकांत में रहे, फिर लौट आए। जब भी जीसस को ऐसा लगता कि लोगों के संग-साथ ने धूल जमा दी, तो अपने दर्पण को झाड़ने वे एकांत में पहाड़ पर चले जाते। जब देखते कि दर्पण फिर शुद्ध हो गया, फिर निर्मल धारा बहने लगी चैतन्य की, धूल-धवांस न रही, फिर निर्दोष हो गए, फिर बालपन पा लिया, फिर लौट गए मूलस्रोत की तरफ, तब लौट आते। शिष्यों ने पूछा भी है उनसे कि आप क्यों मौन में चले जाते हैं?
जब वाणी थका दे, जब बोलना ज्यादा बोझ बन जाए, तो मौन में उतर जाना ऐसे ही है, जैसे दिनभर का थका हुआ आदमी रात सो जाता है। __जब दूसरों की मौजूदगी से तुम ऊब जाओ, परेशान हो जाओ, तो उचित है कि
आंख बंद कर लो और अपने में खो जाओ। वहां से पाओगे ताजगी, क्योंकि तुम्हारे जीवन का स्रोत वहीं छिपा है; वह दूसरे में नहीं है, वह तुम्हारे भीतर है। तुम्हारी जड़ें तुम्हारे भीतर हैं।
इसलिए तुम अक्सर पाओगे कि जो लोग जिंदगीभर दूसरों के, दूसरों के साथ ही गुजारते हैं, वे आदमी बिलकुल उथले और ओछे हो जाते हैं। राजनेता की वही तकलीफ है। वह ओछा हो जाता है, छिछला हो जाता है। उसकी कोई गहराई नहीं रह जाती। क्योंकि जिंदगीभर भीड़। और भीड़ भी ऐसी ही नहीं; ऐसी भीड़ जिसको राजी करना है; ऐसी भीड़ जिसके सामने भिक्षा का पात्र फैलाना है : मत के लिए, वोट के लिए; ऐसी भीड़ जिसकी तरफ हर वक्त नजर रखनी है।
कहते हैं कि राजनेता अपने अनुयायियों का भी अनुयायी होता है। क्योंकि वह
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