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मौन में खिले मुखरता
करते हैं, किसी एकाध को आती है। धन्यभागी मानना अपने को और परमात्मा के प्रति अनुग्रह का भाव रखना कि इतनी समझ दी है, तो द्वार खुलने लगा। बहुत कुछ और होगा।
पहले चुप था, फिर हुआ दीवाना, अब बेहोश है
दूसरा प्रश्न :
ऐसा क्यों है कि सभी बुद्ध पुरुष बोध और जागरण के केंद्रीय संपरिवर्तन का उपदेश देते हैं और उनके स्थापित धर्म आचरण
और कर्मकांड में सिकुड़कर रह जाते हैं? क्या सभी संगठित धर्म समाज के ही हिस्से नहीं हैं ?
| ऐसा होता है, अब तक हुआ है, आगे भी होता रहेगा। क्योंकि जब कोई बुद्ध
-पुरुष बोलता है तो वह जहां से बोलता है, वहां तुम तो समझ नहीं सकते! उसे समझने के लिए तो तुम्हें भी बुद्ध पुरुष हो जाना पड़ेगा। और तब तो समझने की कोई जरूरत ही न रहेगी; तुम ही जान लोगे तो फिर समझने की जरूरत क्या है? जरूरत तो तभी तक है जब तक तुम्हारा अपना कोई स्वाद नहीं, अपना कोई अनुभव नहीं।
और जब बुद्ध पुरुष बोलते हैं तो वे कहीं शिखर से बोल रहे हैं, तुम अपनी घाटियों से, अंधेरी वादियों से सुनते हो। तुम्हारा अंधेरा तुम्हारे श्रवण में सम्मिलित हो जाता है। तुम्हारा अंधेरा तुम जो सुनते हो, उसकी व्याख्या करने लगता है। तुम्हारा अंधेरा, तुम जो सुनते हो वही नहीं सुनते, कुछ और तुम्हें सुना देता है। बुद्ध कुछ बोलते हैं, तुम कुछ और सुनते हो। . ऐसा मुझे रोज ही अनुभव आता है। लोग मेरे पास ही आ जाते हैं, वे कहते हैं, आपने ऐसा कहा था। मैंने कभी कहा नहीं, उन्होंने सुना जरूर। उनको मैं झूठ नहीं कह सकता। उन्होंने सुना है, मैंने कहा हो या न कहा हो। चकित होता हूं कभी-कभी कि यह बात तो मैंने कभी कही नहीं। वे मुझे याद दिलवाते हैं, तब मुझे याद आता है कि जरूर ऐसा ही कुछ मैंने कहा था; ऐसा ही कुछ, यही नहीं। उसमें कुछ शब्द उन्होंने जोड़ दिए, कुछ घटा दिए, सारा अर्थ ही बदल गया। एक कॉमा भी तुम जोड़ दो, अर्थ बदल जाएगा। और एक कॉमा की क्या बात है, तुम तो पहाड़ जोड़ देते हो; तुम अपना सारा सब कुछ उसमें जोड़ देते हो। तुम सुनते थोड़े ही हो, तुम विचार करते हो। तुम अपना कूड़ा-करकट उसमें डाल देते हो। यह सब अनजाने होता है।
इसलिए फिर, पहले तो बुद्ध पुरुष बोलते हैं किसी ऊंचाई से, सुनते ही घटना
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