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एस धम्मो सनंतनो
त्यागी हो जाओ। अब तक स्त्रियों के पीछे भागे थे, अब स्त्रियों से भागने लगो - मगर भागो! इधर नहीं तो उधर, लेकिन भाग-दौड़ जारी रखो। अभी तक धन के लिए दीवाने थे, धन इकट्ठा करते, हिसाब लगाते-लगाते जिंदगी गई - अब त्याग का हिसाब रखो कि कितने लाख त्याग दिए । भागो, छोड़ो। अभी पकड़ते थे, अब छोड़ो! लेकिन दोनों हालतों में तुम्हारी मूढ़ता वहीं की वहीं है ।
मूढ़ता छोड़ने - पकड़ने से नहीं जाती, मूढ़ता जागने से जाती है। मूढ़ता भागने से नहीं जाती, जागने से जाती है। भागो नहीं, जागो ! उस जागने को ध्यान कहते हैं। उस जागने को होश कहते हैं, अमूर्च्छा कहते हैं, अप्रमाद कहते हैं ।
'यदि मूढ़ महीने - महीने कुश की नोक से भोजन करे तो भी वह धर्मज्ञों के सोलहवें भाग के बराबर नहीं हो सकता ।'
बुद्ध तो यह कँह रहे हैं कि उसका कुछ फायदा नहीं, कुछ पा नहीं पाता वह। धर्मज्ञ कौन है ? जिसने भीतर की ज्योति को जगा लिया; जिसने जीवन के नियम को पहचान लिया; जिसने जागने में थोड़ी सी स्थिति सम्हाल ली; जिसकी लौ अकंप जलने लगी, अब हिलती नहीं, डुलती नहीं, डांवाडोल नहीं होती।
यूं समझ में अजमते -पीरे-मुगां क्या आएगी पहले जाहिद रूशनासे- शीशा-ओ-सागर बने फोड़ लेना सर का समझा जाएगा जोफे-जुनूं बात तो जब है कि हर दीवारे - जिंदा दर बने
तुम जेलखाने में बंद हो, अब यह कोई तरकीब न हुई कि तुम अपने सिर को दीवार से टकराकर फोड़ लो। यह कोई जेल से बाहर निकलने का रास्ता न हुआ । फोड़ लेना सर का समझा जाएगा जोफे-जुनूं यह तो पागलपन की कमजोरी समझी जाएगी।
बात तो जब है कि हर दीवारे - जिंदा दर बने
बात तो तब है जब दीवाल को दरवाजा बनाना तुम सीख जाओ। सिर फोड़ लेने से क्या होगा ?
पहले भोगी की तरह पड़े रहे, अब त्यागी की तरह सिर फोड़ रहे हो । सिर फोड़ने से कहीं दीवालें टूटी हैं? सिर ही फूट जाएगा। दरवाजा खोलना है— बोध चाहिए, समझ चाहिए, होश चाहिए। दीवाल को दरवाजा बनाना है।
और ध्यान रखना, जहां दीवाल है वहीं दरवाजा है। जहां-जहां तुमने दुख पाया है, वहीं-वहीं सुख पाया जा सकता था। जहां-जहां तुमने दुख के बीज बोए, वहीं-वहीं फूलों के बीज, सुख के बीज भी बोए जा सकते थे। अभी भी कुछ बिगड़ नहीं गया है, लेकिन होश चाहिए । बुद्ध का सारा जोर होश पर है। रे-खुल्द जाहिद तर्के-दुनिया के भरोसे पर
गरूरे-:
संभल ऐ बेखबर क्यों खानुमा बर्बाद होता है
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