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बुद्धि, बुद्धिवाद और बुद्ध दुश्मन को देखकर रेत में सिर गपा लेता है। ऐसे चारों तरफ संदेह ने तुम्हें घेरा है। तुम अपने सिर को आस्था के रेत में दबा लो। भूल जाओ। देखो ही मत आंख खोलकर क्योंकि आंख खोलकर। देखोगे तो संदेह उठेंगे।
और धर्म कहते हैं कि श्रद्धा कर लो संदेह के विपरीत। बद्ध कहते हैं, संदेह कर लो। पूरी तरह कर लो। इतना कर लो कि संदेह गिर जाए और श्रद्धा का आविर्भाव हो। वह बड़ी अलग बात है। वह बिलकुल ही अलग बात है। और धर्मों की श्रद्धा संदेह के विपरीत है। बुद्ध की श्रद्धा संदेह का अभाव है। जब संदेह नहीं बचता तो जो बचती है, वही श्रद्धा है।
इसलिए पहले संदेह से जूझ लो। अगर संदेह के रहते श्रद्धा कर ली तो ऊपर-ऊपर श्रद्धा होगी, भीतर-भीतर संदेह होगा। और जो भीतर है, वही निर्णायक है। किसे धोखा देना है? ऊपरी वस्त्रों से कुछ भी न होगा।
क्या फायदा रंगीन लबादों के तले
रूह जलती रहे, घुलती रहे, पजमुर्दा रहे - क्या फायदा? वह तुम्हारे भीतर जो दबा है, वही तुम हो। बुद्ध कहते हैं, उसे बाहर निकाल लो। उससे छुटकारा पाने का एक ही उपाय है, उसे रोशनी में ले आओ।
ऐसा नहीं कि बुद्ध श्रद्धा के विरोधी हैं। वस्तुतः तो बुद्ध ही श्रद्धा के पक्षपाती हैं। लेकिन उनकी श्रद्धा हिम्मतवर की श्रद्धा है; कमजोर की नहीं, कायर की नहीं। उनकी श्रद्धा साहसी की, दुस्साहसी की श्रद्धा है। उनकी श्रद्धा वैज्ञानिक की श्रद्धा है, अंधविश्वासी की नहीं।
अभी समय नहीं आया। आता लगता है; पहली पगध्वनियां सुनाई पड़ने लगी, पहली किरण सुबह की फूटी। उनका समय आता लगता है। भविष्य बुद्ध का है। जब राम और कृष्ण, क्राइस्ट और जरथुस्त्र के दीए बुझने-बुझने को होंगे, जब उनके दीए आखिरी घड़ियां गिनते होंगे, तब बुद्ध का सूरज उगेगा। बुद्ध इस पृथ्वी पर रहने वाले हैं। ऐसी तो घड़ी की मैं कल्पना कर सकता हूं, जब लोग जीसस को भूल जाएं। इसकी संभावना है। ऐसी घड़ी की कल्पना भी करनी मुश्किल है, जब बुद्ध को भूल जाएं। क्योंकि रोज-रोज लोग चिंतनशील बनेंगे। रोज-रोज हिम्मतवर होंगे। रोज-रोज आदमी बड़ा हो रहा है, प्रौढ़ हो रहा है; बचपने की बातें खो रहीं हैं। तो आज नहीं कल, कल नहीं परसों, बुद्ध के दिन करीब आते चले जाएंगे। आ ही रहे हैं।
बुद्ध ने एक अनूठी श्रद्धा को जन्म दिया है। श्रद्धा की बात ही नहीं की। क्योंकि श्रद्धा की बात क्या करनी! जब बीमारी नहीं होती तो तुम स्वस्थ होते हो। जब संदेह नहीं होता तो तुम श्रद्धालु होते हो। तो बुद्ध कहते हैं, श्रद्धा का आरोपण नहीं करना है, न श्रद्धा का आचरण करना है, न श्रद्धा का अनुशासन अपने ऊपर थोपना है। श्रद्धा की बात ही भूल जाओ। तुम तो ठीक संदेह कर लो। क्योंकि संदेह करने से
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