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बुद्धि, बुद्धिवाद और बुद्ध कि कुछ तुम्हारे भीतर ठहरा हुआ है, रुका हुआ है। कुछ तुम्हारे भीतर मौजूद ही है। तो जो मौजूद ही है, वह जड़ है। ___तुम्हारे भीतर कुछ हो रहा है-सतत। उसको आत्मा कैसे कहें? प्रवाहमान है, होने की अवस्था है, 'है' नहीं। सदा हो रहा है। चैतन्य एक यात्रा है। तीर्थयात्रा कहो! कोई ठहराव नहीं है, कोई मुकाम नहीं है। चलते जाने का नाम है, होते जाने का नाम है। और यह होना कभी पूरा नहीं होता, क्योंकि जो पूरा हो जाए तो फिर जड़ता।
इसलिए बुद्ध की बात को समझना कठिन है। बुद्ध हुए बिना समझना कठिन है। लेकिन बुद्ध कहते हैं, मानना मत। समझना हो तो तैयारी रखना यात्रा की। मानना हो तो किसी और द्वार पर जाकर सो रहना। बुद्ध का द्वार तुम्हारे लिए नहीं है।
'भगवान बुद्ध का मार्ग संदेह के स्वीकार से शुरू होता है। क्या उनका युग आज के युग जैसा ही बुद्धिवादी था?'
नहीं, युग से कोई संबंध नहीं है। बुद्ध अपने युग के बहुत पहले आ गए थे। बुद्ध पुरुष सदा ही अपने युग के पहले होते हैं। बुद्ध पुरुष कभी भी समसामयिक नहीं होते, कंटेम्प्रेरी नहीं होते। जहां होते हैं, वहां से आगे होते हैं। इसलिए जब भी होते हैं, जहां भी होते हैं, वहीं समझे नहीं जाते। वे जो भी कहते हैं, वही दीवालों पर पड़ता है, कानों पर नहीं। वे जो भी बताते हैं, अंधी आंखों पर पड़ता है, आंखों पर नहीं। हम उन्हें सुन लेते हैं, समझ नहीं पाते। __ इतना ही होता तो भी कुछ बुरा नहीं था। हम उन्हें गलत समझ पाते हैं। इतना ही होता कि हम कहते कि हम नहीं समझ पाए, तो भी कोई हर्जा न था; हम उन्हें गलत समझ पाते हैं। क्योंकि यह तो हम मान ही नहीं सकते कि हम समझ नहीं सकते। ठीक नहीं समझ सकते तो गलत समझ लेते हैं। लेकिन यह धारणा तो मन में परिपोषित करते ही चले जाते हैं कि समझ लिया। __जिन्होंने बुद्ध को सुना, जिन्होंने बुद्ध को माना, जो बौद्ध बन गए, उन्होंने भी समझा नहीं। उन्होंने परमात्मा को छोड़ दिया, बुद्ध को पकड़ लिया। वे बुद्ध की पूजा करने लगे। बात कुछ बनी नहीं। पुराने मंदिर हट गए, नया मंदिर आ गया। पुरानी परंपरा चली गई, नई परंपरा ने जगह ले ली। पुराने शास्त्र, वेद और गीता हट गए तो बुद्ध के वचन शास्त्र बन गए। समझे नहीं लोग।
बुद्ध ने तुम्हें तुम पर फेंका था। बुद्ध ने कहा था, तुम ही तुम्हारे शास्ता हो। तुम ही तुम्हारे गुरु हो। तुम ही तुम्हारे शास्त्र हो और तुम्हारे चैतन्य के सिवाय कहीं कोई सहारा मत खोजना। चैतन्य को जगाना। उसी जागने में तुम एक दिन पाओगे, कि इधर तुम भी खो गए, उधर परमात्मा भी खो गया; मात्र चैतन्य का सागर बचा। उसको बुद्ध ने निर्वाण कहा है। जहां बूंद सागर से एक हो जाती है। जहां बूंद पाती है कि सागर ही है।
लेकिन बुद्ध ने सभी शब्द नकारात्मक उपयोग किए। वह भी तुम्हारी वजह से।
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