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लुत्फ-ए-मय तुझसे क्या कहूं !
लाओत्सू ने कहा है, एक कदम तुम उठाओ। दो कदम एक साथ कोई उठाता भी तो नहीं। एक-एक कदम उठा-उठाकर हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है।
तुम बेहोश हो माना, लेकिन इतने बेहोश भी नहीं कि तुम्हें पता न हो कि तुम बेहोश हो । बस, वहीं सारी संभावना है। वहीं असली सूत्र छिपा है । फिर से मुझे दोहराने दो। तुम बेहोश हो माना, लेकिन इतने बेहोश भी नहीं कि तुम्हें पता न हो कि तुम बेहोश हो । बस, उसी पता में, उसी छोटे से बीज में सब छिपा है । ठीक भूमि मिलेगी, बीज अंकुरित हो जाएगा।
परेशानी तो उनके लिए है, जिन्हें यह भी पता नहीं। उन्हीं को बुद्ध ने मूढ़ कहा है । मूढ़ मूर्ख का नाम नहीं है । मूढ़ और मूर्खता में फर्क है। मूर्ख तो वह है, जिसे पता नहीं है । यह कोई बड़ी बीमारी नहीं है । मूढ़ वह है, जिसे पता भी नहीं और जो मानता है कि उसे पता है । मूढ़ वह है, जो कीचड़ में पड़ा है; और सोचता है, स्वर्ग
मूर्ख वह है, जो कीचड़ में पड़ा है, जानता है कि कीचड़ में पड़ा हूं।
इन दोनों के बीच में विज्ञ है, समझदार है, जो कीचड़ में पड़ा है, जानता है कि कीचड़ में पड़ा है; और चेष्टा कर रहा है उठने की, कि उठ जाए। गिर- गिर पड़ता है । स्वाभाविक है। सीखना पड़ेगा। लेकिन चेष्टा जारी रहती है । फिर-फिर लौट आता है। भटक भटक जाता है, फिर मंदिर को तलाश लेता है। लौट - लौटकर उस सूत्र को पकड़ने की कोशिश करता है ।
वह सूत्र है, बोध का । ध्यान कहो, प्रार्थना कहो, मगर सार बोध है। इसलिए तो हमने जब सिद्धार्थ गौतम ज्ञान को उपलब्ध हुए तो उन्हें बुद्ध कहा- बोध के सूत्र को उपलब्ध हो गए। जाग गए।
बेहोश भी पहुंच जाएंगे। अगर बेहोश न पहुंचते होते तो फिर तो कोई भी न पहुंचता। क्योंकि बुद्ध भी एक दिन बेहोश थे। उसी बेहोशी से बुद्धत्व उठा । इसलिए बेहोशी को तुम बुद्धत्व की दुश्मनी मत समझ लेना । बेहोशी बुद्धत्व का अवसर है। जैसे कीचड़ से कमल उगता है, ऐसे बेहोशी से बुद्धत्व उगता है । यद्यपि कमल दूर चला जाता है कीचड़ से, लेकिन आता कीचड़ से है। रस कीचड़ से पाता है । रस को रूपांतरित कर लेता है।
तुम भोजन करते हो, भोजन करके तुम्हारे भीतर कामवासना बनती है। इसलिए तो साधु-संन्यासी उपवास करने लगते हैं। घबड़ा जाते हैं भोजन से । क्योंकि जितना भोजन लेते हैं, उतनी वासना उभार लेती है।
बुद्ध पुरुष भी भोजन लेते हैं, लेकिन उसी भोजन से अब वासना नहीं बनती; करुणा बनती है। अब कीचड़ कमल बनने लगी।
तुम रात सोते हो, साधु-संन्यासी डरते हैं रात सोने से। क्योंकि दिनभर तो किसी तरह सम्हाला, नींद में कैसे सम्हालेंगे ? कामवासना नींद में घेर लगी। तो नींद से डरने लगते हैं। बुद्ध पुरुष के लिए दिन हो कि रात, सब बराबर है। जिसने जागना
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