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लुत्फ-ए-मय तुझसे क्या कहूं! हैं। दूसरे को भी अभिमान जगा, उसको आप स्वाभिमान कहते हैं। दोनों अभिमान हैं। अगर पहला गलत था, दूसरा भी सही नहीं है। पहला अहंकार भोगी का होगा, दूसरा अहंकार त्यागी का है। पहला अहंकार धनी का होगा, दूसरा अहंकार दरिद्र का है। लेकिन दोनों अहंकार हैं। चूंकि आपने भी अपने को त्यागी मान रखा है, दूसरे के अहंकार से आपको भी रस मिल रहा है। और यहां जो आपके पास लोग बैठे हुए हैं, इनकी भी त्याग की यही धारणा है। ___तुम अगर त्याग भी करोगे तो उससे भी अहंकार ही बनेगा। भोग की तो छोड़ो बात, त्याग भी करते हो तो उसका भी जो रस मिलता है, उससे भी अहंकार बनता है। असली सवाल त्याग और भोग नहीं, असली सवाल तुम्हारे भीतर की कीमिया, अल्केमी बदलने का है। तुम्हारे भीतर जो यंत्र बैठा हुआ है, जो हर चीज को अहंकार में बदल देता है, वासना में बदल देता है, बेहोशी में बदल देता है, उसको तोड़ना है।
ध्यान उसका ही प्रयोग है। वह तुम्हारे भीतर के पूरे यंत्र को बदल देता है। कल भी तुम उसी मिट्टी में रहोगे, जिसमें पहले थे। लेकिन अब उसी मिट्टी से कमल निकलेगा। तुम उसी संसार में खड़े रहोगे जहां कल खड़े थे। लेकिन अब तुम संसार में होते हए भी संसार में न रहोगे। संसार में तम रहोगे, संसार तुममें न होगा। बीच में खड़े भी तुम पार होओगे। अतिक्रमण हो जाएगा। बोध का यही अर्थ है।
तो मैंने निश्चित कल कहा कि कवि और शायर कभी-कभी बड़ी ज्ञान की बातें करते हैं। निश्चित ही। बड़ी ऊंचाइयां छू लेते हैं। लेकिन वे ऊंचाइयां ऐसे ही हैं, जैसे किसी ने स्वप्न देखा–हिमालय का। उज्ज्वल सूर्य की किरणों से स्वर्णमंडित शिखर देखे, लेकिन स्वप्न में देखे। यह एक बात है। और किसी ने साक्षात किया उन शिखरों का स्वप्न में नहीं, जागते हुए। यह बिलकुल दूसरी बात है।
कवि तुम्हारे जैसा ही आदमी है। तुममें और उसमें थोड़ा सा फर्क है। वह इतना ही फर्क है कि वह स्वप्न-द्रष्टा है। वह दूर के सपने देखना जानता है। वह सपने देखने में तुमसे ज्यादा कुशल है। तुम सपने भी देखते हो तो भी दूर के नहीं देखते। . मैंने सुना है कि एक शिष्य ने अपने गुरु को आकर कहा, कि बड़ा रस आया। समाधि लग गई। ध्यान कर रहा था बैठा गुरु के सामने। गुरु ने कहा, कैसी समाधि! क्योंकि अचानक तूने सिसकारा लिया और आंख खोल दी। उसने कहा कि अब मैं आपको पूरी बात कह दूं। आज ध्यान दाल-बाटी बनाने पर लगाया। खूब लगा! बिलकुल लीन हो गए। ऐसा कभी न लगा था। मगर जरा दाल में मिर्च ज्यादा पड़ गए। तो सिसकारा निकल गया। फिर लगाऊंगा। जरा चूक हो गई।
गुरु ने कहा, ध्यान ही करना था, सपना ही देखना था, तो मोक्ष का देखता, परमात्मा का देखता। नासमझ! दाल-बाटी बनाई? दाल-बाटी ही बनानी थी तो कम से कम खीर, हलवा, कुछ ढंग की चीजें बनाता। उसमें भी ज्यादा मिर्च डाल लीं! सपना देखना भी तुझे नहीं आता, ध्यान करना तो कैसे आएगा? सपने में भी वही
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