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लुत्फ-ए-मय तुझसे क्या कहूं !
लौट आए। रहने में भी डर है, कभी संसार फिर बुला ले। नहीं, शिखर हो जाता है। कवियों को परमात्मा कभी-कभी, स्वप्न में संदेश देता है। ऋषि परमात्मा हो जाते हैं: अहं ब्रह्मास्मि ! अनलहक ! वे उस सत्य के साथ एक हो जाते हैं।
तीसरा प्रश्न :
सामान्य जीवन का विकास द्वंद्वात्मक, डायेलेक्टिकल है। क्या आत्मिक जागरण भी द्वंद्वात्मक है ?
हीं
- जहां तक द्वंद्व है, वहां तक आत्मा नहीं। जहां तक द्वंद्व है, जहां तक दो हैं, वहां तक तुम नहीं। जहां तक संघर्ष है, वहां तक संसार है। आध्यात्मिक जागरण है साक्षीभाव ।
संसार का विकास द्वंद्वात्मक है। यहां हर चीज विपरीत से जुड़ी है। दिन है तो रात है। सुबह हुई तो सांझ होगी। चाहे तुम कितना ही भुलाओ, समझाओ अपने को, कि अब कभी सांझ न होगी। इस पागलपन में मत पड़ना। सुबह हुई तो सांझ हो गई। सुबह सांझ को ले आई। तुम्हें देखने में बारह घंटे की देर लगेगी। वह देखने की देरी है। जन्म हुआ तो मौत हो गई। सत्तर साल लगेंगे तुम्हें पहचानने को । वह पहचानने की देरी है। सुबह में सांझ आ गई । विपरीत आ गया । प्रकाश में अंधेरा आ गया। खुशी में दुख आ गया। इधर नाचे नहीं कि वहां चिंता तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। इधर तुम मुस्कुराए नहीं कि वहां आंसू तैयार होने लगे। तुम्हारी मुस्कुराहट आंसू ले आई।
जिस दिन तुम इन दोनों के साक्षी हो जाओगे, कि तुम देखोगे, यह रही मुस्कुराहट, ये रहे आंसू, न अपने को मुस्कुराहट से जोड़ोगे, न अमंसुओं से; तीसरे हो जाओगे, दूर खड़े होकर देखने लगोगे; उस दिन आत्मिक जागरण हुआ । तब दो दो नहीं रह जाते। आंसुओं में मुस्कुराहट दिखाई पड़ जाती है, मुस्कुराहट में आंसू दिखाई पड़ जाते हैं । द्वंद्व गया । तुमने निर्द्वद्व को पा लिया।
नई सुबह पर नजर है मगर आह यह भी डर है यह सहर भी रफ्ता रफ्ता कहीं शाम तक न पहुंचे नई सुबह पर नजर है मगर आह यह भी डर है
यह सहर भी रफ्ता रफ्ता कहीं शाम तक न पहुंचे
पहुंचेगी ही। यह सुबह भी सांझ होगी। सभी सुबह सांझ होगी। धन में निर्धनता छिपी आ गई। इसलिए तो धनी को तुम इतना डरा हुआ पाते हो । निर्धनता का भय धन के साथ ही आ जाता है। प्रेम में घृणा का बीजारोपण हो जाता है। इसलिए तो
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