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एस धम्मो सनंतनो
अब इसे हम समझें।
जब तक तुम हो, तब तक तुम यह न मान पाओगे कि परमात्मा नहीं है। तुम्हारे होने की धारणा में ही परमात्मा के होने की धारणा का बीजारोपण है। मैं हूं, तो तू भी होगा। इस विराट तू का नाम ही परमात्मा है। अगर तू नहीं है तो मैं कैसे हो सकता हूं? मैं और तू साथ-साथ ही सार्थक हैं; अलग-अलग व्यर्थ हो जाते हैं।
तो बुद्ध ने पहले तो कहा, परमात्मा नहीं है। वहां तक महावीर का संग-साथ रहा। इसलिए जैन बुद्ध को महात्मा कहते हैं, भगवान नहीं। आदमी भला है, थोड़ी दूर तक गया है। महात्मा है, भगवान नहीं है। अभी पूरा नहीं पहुंचा है। आधी बात तक तो साथ गया है, फिर इसका मार्ग अलग हो गया है। फिर इसने तो जड़ ही तोड़ दी। परमात्मा नहीं था यह तो कहा ही; आत्मा भी नहीं है! इसने होने की धारणा ही बदल दी। इसने होने की सब सीमाएं उखाड़ दी।
बड़ी अड़चन होती है बुद्धि को। कुछ भी नहीं है तो फिर इतना सब है और इस सब के नीचे कुछ भी नहीं है? और बुद्ध कहते हैं, यह सब जो है, इस सब के भीतर कहीं भी कोई सीमा नहीं है। यह विराट है, लेकिन यह विराट कहीं भी बंटा हुआ, कटा हुआ नहीं है। न मैं में बंटा है, न तू में बंटा है। अविच्छिन्न है यह धारा। इसमें आत्मा कहीं भी नहीं है। इसमें कहीं भी मैं कहने की गुंजाइश नहीं है। जहां मैं कहा, वहीं असत्य हुआ।
और ये जो बातें बुद्ध ने कहीं, ये कोई दार्शनिक की बातें न थीं, एक अनुभव सिद्ध पुरुष के वचन थे। तुम भी जब गहरे ध्यान में जाओगे तो न परमात्मा को पाओगे, न स्वयं को पाओगे। अस्तित्व होगा निर्विकार, जिस पर कोई सीमा न होगी, कोई सरहद न होगी। अस्तित्व होगा निर्विकार, जैसे कोरा आकाश! बदलियों के रूप भी न होंगे। इस परम शून्य को बुद्ध ने निर्वाण कहा।
संदेह से शुरू की यात्रा और शून्य पर पूर्ण की। संदेह और शून्य के बीच में बुद्ध का सारा बोध है। अभी भी समय नहीं आया। संदेह को धर्म का आधार बनाया
और शन्य को धर्म की उपलब्धि। बाकी सारे धर्म विश्वास को आधार बनाते हैं और पूर्ण को उपलब्धि। यह तो बिलकुल उलटा हो गया। नाव उलटा दी। इतने उलटे धर्म को समझने के लिए बड़ी गहन प्रज्ञा चाहिए। सीधा-सीधा धर्म समझ में नहीं आता, जहां विश्वास से शुरुआत होती है और जहां पूर्ण पर अंत होता है। सीधा-सीधा धर्म भी समझ से छूट-छूट जाता है। जो तुमसे ज्यादा मांग भी नहीं करता। कहता है, सिर्फ श्रद्धा करो। वह भी नहीं हो पाता। हम ऐसे अभागे! उतना भी नहीं सधता। श्रद्धा ही करने को कहता है साधारण धर्म, मान लो। खोज की बात ही नहीं कहता।
बुद्ध कहते हैं, मानने से न चलेगा। बड़ी खोज करनी पड़ेगी। पहले कदम के पहले भी बड़ी यात्रा है। साधारण धर्म कहता है, पहला कदम बस तुम्हारे भरोसे की बात है; उठा लो। इससे ज्यादा कुछ करना नहीं। तुमसे ज्यादा मांग नहीं करता।
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