Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 11
अथवा उपसर्ग हैं। इसकी व्याख्या करते हुए वृत्तिकार शीलांकदेव कहते हैं कि संयमी श्रमण को साधना में विघ्नरूप से उत्पन्न मोहजन्य परीषहों अथवा उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करना चाहिए। स्त्री-संसर्ग भी एक मोहजन्य परीषह ही है। भगवान् महावीरकृत आचारविधानों में बह्मचर्य अर्थात् त्रिविध स्त्री संसर्गत्याग प्रधान है। परम्परा से चले आने वाले चारयामों - चार महाव्रतों में भगवान् महावीर ने ब्रह्मचर्य व्रत को अलग से जोड़ा। इससे पता चलता है कि भगवान् महावीर के समय में एतद्विषयक कितनी शिथिलता रही होगी। इस प्रकार के उपशैथिल्य एवं आचारपतन के युग में कोई विघ्नसंतोषी कदाचित् इस अध्ययन के लोप में निमित्त बना हो तो कोई आश्चर्य नहीं।
आठवें अध्ययन के दो नाम मालूम पड़ते हैं :- एक विमोक्ख अथवा विमोक्ष और दूसरा विमोह। अध्ययन के मध्य में "इच्चेयं विमोहाययणं' तथा "अणुपुव्वेण विमोहाइं" व अध्ययन के अन्त में "विमोहन्नयरं हियं" इन वाक्यों में स्पष्ट रूप से "विमोह' शब्द का उल्लेख है। यही शब्दप्रयोग अध्ययन - के नामकरण में निमित्तभूत मालूम होता है। नियुक्तिकार ने नाम के रूप में
"विमोक्ख-विमोक्ष' शब्द का उल्लेख किया है। वृत्तिकार शीलांकसूरि मूल व नियुक्ति दोनों का अनुसरण करते हैं। अर्थ की दृष्टि से विमोह व विमोक्ख में कोई तात्त्विक भेद नहीं है। प्रस्तुत अध्ययन के आठ उद्देशक हैं। उद्देशकों की संख्या की दृष्टि से यह अध्ययन शेष आठों अध्ययनों से बड़ा है। नियुक्तिकार का कथन है • कि इन आठों उद्देशकों में विमोक्ष निरूपण है। विमोक्ष का अर्थ है अलग हो जाना-साथ में न रहना। विमोह का अर्थ है मोह न रखना – संसर्ग न करना। प्रथम उद्देशक में बताया है कि जिन अनगारों का आचार अपने आचार से मिलता न दिखाई दे उनके
संसर्ग से मुक्त रहना चाहिए - उनके साथ नहीं रहना चाहिए अथवा वैसे अनगारों से • मोह नहीं रखना चाहिए - उनका संग नहीं करना चाहिए। दूसरे उद्देशक में बताया है
कि आहार, पानी, वस्त्र आदि दूषित हों तो उनका त्याग करना चाहिए- उनसे अलग रहना चाहिए – उन पर मोह नहीं रखना चाहिए। तृतीय उद्देशक में बताया है कि साधु के शरीर का कंपन देखकर यदि कोई गृहस्थ शंका करे कि यह साधु कामावेश
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