Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 33
द्वितीय अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में बताया गया है कि कुछ लोग यह मानते हैं कि हमारे पास देवों का बल है, श्रमणों का बल है। ऐसा समझकर वे अनेक हिंसामय आचरण करने से नहीं चूकते। वे ऐसा समझते हैं कि ब्राह्मणों को खिलायेंगे तो परलोक में सुख मिलेगा। इसी दृष्टि से वे यज्ञ भी करते हैं। बकरों, भैंसों, यहाँ तक कि मनुष्यों के वध द्वारा चंडिकादि देवियों के याग करते है एवं चरकादि ब्राह्मणों को दान देंगे तो धन मिलेगा, कीर्ति प्राप्ति होगी व धर्म सधेगा, ऐसा समझकर अनेक आलंभ - समालंभन करते रहते हैं। इस उल्लेख में भगवान् महावीर के समय में धर्म के नाम पर चलने वाली हिंसक प्रवृत्ति का स्पष्ट निर्देश है। चतुर्थ अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में बताया गया है इस जगत् में कुछ श्रमण व ब्राह्मण भिन्न-भिन्न रीति से विवाद करते हुए कहते हैं कि हमने देखा है, हमने सुना है हमने माना है, हमने विशेष तौर से जाना है तथा ऊँची-नीची व तिरछी सब दिशाओं में सब प्रकार से पूरी सावधानी पूर्वक पता लगाया है कि सर्व प्राण, सर्व भूत, सर्व जीव, सर्व सत्त्व हनन करने योग्य हैं, संताप पहुँचाने योग्य हैं, उपद्रुत करने योग्य हैं एवं स्वामित्व करने योग्य है। ऐसा करने में कोई दोष नहीं। इस प्रकार कुछ श्रमणों व ब्राह्मणों के मत का निर्देश कर सूत्रकार ने अपना अभिमत बताते हुए कहा है कि यह वचन अनार्यों का है अर्थात् इस प्रकार हिंसा का समर्थन करना अनार्यमार्ग है। इसे आर्यों ने दुर्दर्शन कहा है। दुःश्रवण कहा है, दुर्मत कहा है, दुर्विज्ञान कहा है एवं दुष्प्रत्यवेक्षण कहा है। हम ऐसा कहते हैं, ऐसा भाषण करते हैं; ऐसा बताते हैं, ऐसा प्ररूपण करते हैं कि किसी भी प्राण, किसी भी भूत, किसी भी जीव, किसी भी सत्त्व को हनना नही चाहिए, त्रस्त नहीं करना चाहिए, परिताप नहीं पहुँचाना चाहिए, उपद्रुत नहीं करना चाहिए एवं उस पर स्वामित्व नहीं करना चाहिए। ऐसा करने में ही दोष नहीं है। यह आर्यवचन है। इसके बाद सूत्रकार कहते हैं कि हिंसा का विधान करने वाले एवं उसे निर्दोष मानने वाले समस्त प्रवादियों को एकत्र कर प्रत्येक को पूछना चाहिए कि तुम्हें मन की अनुकूलता दुःखरूप लगती है या प्रतिकूलता? यदि वे कहें कि हमें तो मन की प्रतिकूलता दुःखरूप लगती है तो उनसे कहना चाहिए कि जैसे तुम्हें मन की प्रतिकूलता दुःखरूप लगती है वैसे ही समस्त प्राणियों, भूतों, जीवों व सत्त्वों को भी मन की प्रतिकूलता दुःखरूप लगती है।
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