Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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सूत्रकृतांग सूत्र : एक दार्शनिक अध्ययन
- डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय समग्र भारतीय संस्कृति एवं विचारधारा का मुख्य लक्ष्य आध्यात्मिक विकास एवं लोक कल्याण रहा है। यही कारण है कि भारतीय दर्शन जिसका मूल स्वर अध्यात्मवाद है, की रुचि किसी काल्पनिक एकांत में न होकर मानव समुदाय के कल्याण में रही है। भारतीय दर्शन की दो प्रमुख धाराओं-वैदिक एवं अवैदिक में से अवैदिक धारा के प्रतिनिधि जैन दर्शन में आत्मवाद, कर्मवाद, परलोकवाद एवं मोक्षवाद का विशद विवेचन मिलता है। इन चारों सिद्धान्तों में भारतीय दर्शनों की मूल प्रवृत्तियाँ समविष्ट हैं। जैन दर्शन के ये सिद्धान्त उनके आगमों में सुरक्षित हैं।
आगम ही जैन परम्परा के वेद एवं पिटक हैं। जैन परम्परा, इतिहास और संस्कृति के विशेष निधि रुप से आगम-अंग, उपांग, मूलसूत्र,छेदसूत्र, चूलिका एवं प्रकीर्णकों में वर्गीकृत हैं। समस्त जैन सिद्धान्त बीजरुप में इनमें सुरक्षित हैं। काल की दृष्टि से अंग प्राचीनतम हैं। वर्तमान में उपलब्ध 11 अंगों में सूत्रकृतांग जिसके एकार्थक नाम सूतकृत, सूलकृत, सूचाकृत, भी हैं, का द्वितीय एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है। किन्तु दार्शनिक साहित्य के इतिहास की दृष्टि से इसका महत्त्व आचारांग से भी अधिक है। यह स्वसमय (स्व-सिद्धान्त) और पर समय (पर-सिद्धान्त) का ज्ञान (सत्यासत्य दर्शन) कराने वाला शास्त्र है।
दो श्रुतस्कंधों में विभक्त सूत्रकृतांग में कुल 23 अध्ययन एवं तैंतीस उद्देशन काल तथा 36,000 पद हैं। सूत्रकृतांग के 23 अध्ययन इस प्रकार हैं- समय, वैतालीय, उपसर्गपरिज्ञा, स्त्री परिज्ञा, नरकविभक्ति, महावीरस्तुति, कुशील परिभाषक, वीर्य, धर्म, समाधि मार्ग, समवसरण, यथातथ्य, ग्रन्थ, यमातीत, गाथा, पुण्डरीक क्रिया स्थान,आहारपरिज्ञा, प्रत्याख्यान क्रिया, अनगार सूत्र,आर्द्रकीय एवं नालंदीपा "समय" नामक प्रथम अध्ययन में स्वसमय, परसमय का निरुपण करते हुए पंचभूतवादी, अद्वैतवादी, तज्जीवतच्छरीरवादी, अकर्तावादी,पंच भूतात्मषष्ठवादी, अक्रियावादी सिद्धान्तों का विवेचन किया गया है तथा नियतिवाद, अज्ञानवाद, जगत्कर्तृत्ववाद एवं लोकवाद का निरसन किया गया है। "वैतालीय" अध्ययन में शरीर की अनित्यता,
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