Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
View full book text
________________
स्थानांग एवं समवायांग में पुनरावृत्ति की समस्या
- डॉ अशोक कुमार सिंह परम्परा से द्वादशांगों में, किन्तु आज विद्यमान ग्यारह अंग ग्रन्थों में तीसरे और चौथे अंग के रुप में प्रख्यात स्थानांग एवं समवायांग संग्रह ग्रन्थ माने जाते हैं। इनकी शैली इस प्रकार है कि प्रथम स्थान में एक पदार्थ अथवा क्रिया आदि का निरुपण है, द्वितीय में दो-दो का और तृतीय में तीन-तीन का वर्णन है। स्थानांग में दस स्थानों में एक से दस पदार्थों अथवा क्रियाओं का संग्रह है जबकि शैली में इसके ही अनुरुप, समवायांग में एक से हजारों, करोड़ों और उससे भी आगे की संख्या वाले तथ्यों का निरुपण है। पहले की प्रकरण संख्या दस तक सीमित है जबकि दूसरे की प्रकरण संख्या निश्चित नहीं है। इन दोनों ग्रन्थों की प्रकृति एवं विषय-वैविध्य के सन्दर्भ में जैनविद्या में मूर्धन्य मनीषी पं. बेचर दास दोशी' का यह कथन अत्यन्त प्रासंगिक है कि इन दोनों सूत्रों के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि ये संग्रहात्मक कोश के रुप में निर्मित किये गये हैं। अन्य अंगों की अपेक्षा इनके नाम एवं विषय सर्वथा भिन्न प्रकार के हैं। इन अंगों की विषय-निरुपण शैली से ऐसा भी अनुमान किया जा सकता है कि जब अन्य सब अंग पूर्णतया बन गये होंगे तब स्मृति अथवा धारणा की सरलता की दृष्टि से अथवा विषयों की खोज की सुगमता की दृष्टि से पीछे से इन दोनों अंगों की योजना की गई होगी तथा इन्हें विशेष प्रतिष्ठा प्रदान करने हेतु इनका अंगों में समावेश कर दिया होगा।
उक्त कथन के आलोक में यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अंगों में विद्यमान समस्त या अधिकांश तथ्यों की सूचना या सूची इन दोनों अंगों में उपलब्ध है, साथ ही शेष अंगों में प्रदत्त तथ्यों के अतिरिक्त इनमें कोई नवीन तथ्य संगृहीत नहीं होगा। इनको संग्रह ग्रन्थ स्वीकार करने में सबसे प्रमुख आपत्ति इनके क्रम को लेकर होती है यदि ये अन्य अंग ग्रन्थों के निर्मित होने के पश्चात् संगृहीत हुए होते तो इनका क्रम स्वाभाविक रुप से अन्य अंगों के बाद होता। इस दृष्टि से अध्ययन क्रम में ही दोनों ग्रन्थों में प्राप्त विषय-पुनरावृत्ति की समस्या का तथ्यगत विवेचन करने की आवश्यकता प्रतीत हुई। सामान्य अवधारणा है कि इन दोनों अंगों में
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org