Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 324
________________ प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 295 दिगम्बर परम्परा के साहित्य में इस विभाग का नाम प्रथमानुयोग मिलता है। दृष्टिवाद का पाँचवाँ विभाग चूलिका था। समवायांग और नंदी में लिखा है कि चार पूर्वो की जो चूलिकाएँ हैं उन्हीं चूलिकाओं का दृष्टिवाद के इस विभाग में समावेश किया गया है किन्तु दिगम्बर साहित्य में जलगता, थलगता, मायागता, रूपगता और अकाशगता ये पाँच चूलिकाएँ बताई गई हैं। दृष्टिवाद का महत्व :- दृष्टिवाद अत्यधिक विशाल था। आचार्य शीलांग ने सूत्रकृतांगवृत्ति में लिखा है कि पूर्व अनंत अर्थ वाला होता है और उसमें वीर्य का प्रतिपादन किया जाता है अतः उसकी अनंतार्थता जाननी चाहिए। जैसे समस्त नदियों के बालकणों की गणना की जाय या सभी समुद्रों के पानी को हथेली में एकत्रित कर उसके जलकणों की गणना की जाय तो उन बालुकणों और जलकणों की संख्या से भी अधिक अर्थ एक पूर्व का होता है | " 10 कालजन्य मंद मेधा के कारण इस विशाल ज्ञानराशि का धीरे-धीरे हास होता चला गया। आचार्य कालक ने अपने प्रशिष्य सागर को उपदेश देते हुए कहा था कि " ज्ञान का गर्व न करो"। उन्होंने अपन हाथ में मुट्ठीभर धूलि लेकर एक स्थान पर रक्खी। तत्पश्चात् दूसरे, तीसरे, चौथे, पाँचवें स्थान पर रक्खी, फिर उन्होंने शिष्य को संबोधित करते हुए कहा - जैसे यह धूलि एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखने पर क्रमशः कम होती चली गई वैसे ही तीर्थंकर भगवान की वाणी गणधरों को प्राप्त हुई और गणधरों से अन्य आचार्यों को और फिर उनके शिष्य - प्रशिष्यों को । इसी प्रकार यह भी कम होती चली गई। आज प्रस्तुत द्वादशांगी का ज्ञान कितना कम रह गया है यह कहना अत्यधिक कठिन है। निशीथचूर्णि के अनुसार दृष्टिवाद में द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग, धर्मकथानुयोग और गणितानुयोग का कथन होने से छेदसूत्रों की भाँति इसे भी उत्तम श्रुत कहा है। तीन वर्ष के प्रव्रजित साधु को निशीथ, पाँच वर्ष के प्रव्रजित साधु को कल्प और व्यवहार का उपदेश देना बताया है किन्तु दृष्टिवाद के उपदेश के लिए बीस वर्ष की प्रव्रज्या आवश्यक मानी गई है।" बृहत्कल्पनिर्युक्ति में लिखा है कि तुच्छ स्वभाव वाली, बहुत अभिमानी, चंचल इन्द्रियों वाली और मन्दबुद्धि वाली सभी स्त्रियों को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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