Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
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296 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा
दृष्टिवाद पढ़ने का निषेध है। इस कथन का क्या रहस्य है यह चिन्तकों के लिए विचारणीय है।
उपसंहार :- इस प्रकार स्पष्ट है कि दृष्टिवाद बहुत ही विशाल और महत्वपूर्ण अंग था। इसका महत्व इसी से स्पष्ट हो जाता है कि जब आर्यरक्षित वेद-वेदांगों तथा अन्य सभी प्रकार के ज्ञान के पारगामी विद्वान होकर लौटे तो उनकी माता ने एक ही शब्द कहा - "दृष्टिवाद पढ़ो। क्योंकि इसी के द्वारा तुम्हें आत्मा का सच्चा स्वरूप ज्ञात हो सकेगा। तुम समस्त सिद्धान्त के ज्ञाता हो जाओगे। आत्म कल्याण के लिए दृष्टिवाद का अध्ययन अपेक्षित है।" और माता के इन वचनों को सुनकर आर्यरक्षित दृष्टिवाद के अध्ययन के लिए चल दिए।
दृष्टिवाद की विशालता, गंभीरता अब केवल अतीत की वस्तु रह गई है। ज्ञान का यह विपुल भंडार अप्राप्त है। इसका उल्लेख भर ही शेष है।
संदर्भ सूची :1. दृष्टयो दर्शनानि नया वा उच्यन्ते अभिधीयन्ते पतन्ति वा अवतरन्ति यत्रासौ दृष्टिवादी, दृष्टिपातो वा। प्रवचन पुरूषस्य द्वादशेऽङ्गे।
- स्थानांगवृत्ति, ठा 4, उ.1 2. दृष्टिदर्शनं सम्यक्त्वादि, वदनं वादो, दृष्टीनां वादो दृष्टिवादः।
. - प्रवचनसारोद्धार, द्वार 144 3. गोयमा ! जंबूद्वीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए ममं एगं
वाससहस्सं पुव्वगए अणुसज्जिस्सइ .......... __ - भगवतीसूत्र, शतक 20, उ.8 सू. 677; सूत्तागमे, पृष्ठ 504 दिट्ठिवायस्स णं दस नामधिज्जा पण्णत्ता। तं जहा - दिट्ठिवाएइ वा, हेउवाएइ वा, भूयवाएइ वा, तच्चावाएइ वा, सम्मवाएइ वा, धम्मावाएइ भासाविजएइ वा, पुव्वगएइ वा, अणुओगगएइ वा, सव्वपाणभयजीवसत्तसुहावहेइ वा।
- स्थानांगसूत्र , ठा.10, सूत्र 742; मुनिश्री कमलं द्वारा सम्पादित 5. से किं दिट्ठिवाए ? से समासओ पंचविहे पण्णत्ते तं जहा- परिकम्मे,
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