Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
View full book text
________________
प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 187 साधना के द्वांरा श्रावक समतामूलक दृष्टि को प्राप्त कर सकता है। सामायिक की साधना के अनुक्रम में साधक त्रस - स्थावर सभी जीवों के प्रति समान भाव रखता है। वह पापपूर्ण (सावद्य) प्रवृत्ति का त्याग करता है तथा दोषमुक्त (निरवद्य) प्रवृत्ति को अपनाता है। सामायिक का व्रत पूर्वाह्न, मध्याह्न एवं अपराह्न तीनों कालों में किया जाता है। इसकी साधना व्यवधान रहित स्थानों पर की जाती है ताकि साधक चित्त विक्षेप से मुक्त होकर समत्व भाव में रमण कर सके। इसके 5 अतिचार हैंमनोदुष्पणिधान, वचनदुष्प्रणिधान, कायदुष्प्रणिधान, स्मृत्यकरण और अनवस्थितता ।
1. मनोदुष्प्रणिधान : मन में अशुभ विचारों का आना ।
2. वचनदुष्प्रणिधान : वचन का दुरुपयोग, कठोर-कटु-असत्य संभाषण।
3. कायदुष्प्रणिधान शरीर से पापपूर्ण कार्य करना ।
:
: सामायिक में स्मृति न रखना।
: अस्थिर मन से अथवा शीघ्रता से सामायिक
करना।
(ख) देशावकाशिक :- देशावकाशिक व्रत द्वारा अनिवार्य एवं अपरिहार्य परिस्थिति आ जाने पर दिशापरिमाणव्रत नामक गुणव्रत में निर्धारित की गई क्षेत्र - दिशा की मर्यादा में कुछ अवधि के लिए परिवर्तन करने का विधान किया जाता है। यह व्रत जिस निश्चित अवधि के लिए ग्रहण किया जाता है, श्रावक इस काल में उस 'नवीन रुप में स्थिर क्षेत्रादि की मर्यादा का पूर्णतः पालन करता है। जिस नवीन क्षेत्र की मर्यादा निर्धारित की जाती है, कर्ता उसके बाहर नहीं जाता, किसी को बाहर नहीं भेजता और उसके बाहर स्थित व्यक्ति को भी नहीं बुलाता है। वह क्षेत्र के बाहर से लायी गई वस्तु का उपयोग नहीं करता । इस प्रकार इस व्रत में मुख्य रुप से प्रवृत्तियों को संकुचित किया जाता है। उपासकदशांग, आवश्यकसूत्र में यह शिक्षाव्रत है जबकि तत्वार्थसूत्र, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, उपासकाध्ययन में इसे गुणव्रत माना गया है।' इसके 5 अतिचार हैं2 - आनयन प्रयोग, प्रेष्यप्रयोग, शब्दानुपात, रुपानुपात और बहिःपुद्गल प्रक्षेप।
4. स्मृत्यकरण 5. अनवस्थितता
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org