Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 263
________________ 234: अंग साहित्य : मनन और मीमांसा में वर्णित "संखेज्जाइं पयसयसहसाइं पयग्गेणं" का भी अर्थ व्याख्याकार अभयदेवसूरि ने संख्येय लाख अर्थात् छयालीस लाख और आठ हजार पद किया है। इसके अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए नंदीसूत्र के टीकाकार कहते हैं कि-"पदं परिमाणं च पूर्वस्मात् अंगात् उत्तरस्मिन् उत्तरस्मिन् अंगे द्विगुणमवसेयम्।" अर्थात् प्रथम अंग की पद संख्या प्रत्येक अगले अंग में दोगुणा हो जाती है यानि आचारांग में अठारह हजार पद हैं तो सूत्रकृतांग में छत्तीस हजार, स्थानांग में बहत्तर हजार, समवायांग में एक लाख चौवालीस हजार, भगवती में दो लाख अठायसी हजार, ज्ञाताधर्मकथा में पाँच लाख छिहत्तर हजार पद तथा कथा-उपकथा सब मिलाकर साढ़े तीन करोड़, उपासकदशा में ग्यारह लाख बावन हजार पद, अन्तकृत्दशा में तेईस लाख चार हजार तथा अनुत्तरोपपातिक में छियालीस लाख आठ हजार पद हैं। परन्तु समवायांग में वर्णन क्रम में भगवतीसूत्र के पदों की संख्या चौरासी हजार ही उल्लिखित है। ऐसा लगता है कि ये वर्णन परम्परागत मान्यता पर आधारित हैं। वर्तमान में इन अंगों में इतने अक्षर भी नहीं हैं। ... प्रस्तुत आगम का रचनाकाल पण्डित दलसुख मालवणिया आदि विद्वानों ने विक्रम पूर्व की द्वितीय शताब्दी माना है, यद्यपि इसका वर्तमान स्वरुप वीर निर्वाण के 980 वर्ष पश्चात् वल्लभी में संपन्न तृतीय वाचना में ही निर्धारित हो पाया। वर्तमान में उपलब्ध इस अंग का स्वरुप स्थानांग, समवायांग आदि ग्रंथों में उल्लिखित इसके स्वरुप से भिन्न है। वर्तमान में यह ग्रंथ तीन वर्गों में विभक्त है। इनमें क्रमशः दस, तेरह और दस अध्ययन हैं। इन तैंतीस अध्ययनों में से प्रत्येक में एक-एक ऐसे महान आत्माओं के तप आदि का वर्णन किया गया है जो वर्तमान शरीर को छोड़कर पांच अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए। इसके प्रथम वर्ग में दस अध्ययन हैं, जिनके नाम हैं :- जालि, मयालि, उपजालि, पुरुषसेन, वारिषेण, दीर्घदन्त, लष्टदन्त, वेहल्ल, वेहायस और अभय। इनमें जालिकुमार का वर्णन कुछ विस्तार से है। शेष का "जाव" कहकर जालिकुमार के समान इंगित कर दिया गया है। द्वितीय वर्ग में तेरह अध्ययन हैं :- दीर्घसेन, महासेन, लष्टदन्त, गूढ़दन्त, शुद्धदन्त, हल्ल, द्रुम, द्रुमसेन, महाद्रुमसेन, सिंह, सिंहसेन, महासिंहसेन और पुण्यसेन। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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