Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 277
________________ 248 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा लटकने वाला दीपक, चांदी का दीपक, सोने, चांदी और सोने-चांदी का पंजर दीपक, थाल, थाली, मल्लक (कटोरा), तालिका (रकाबियां), कलाचिका (चम्मच), तापिका हस्तक (संडासियां), तवे, पादपीठ, भिषिका, करोटिका (लोटा), पलंग, प्रतिशय्या, हंसासन, क्रौंचासन, गरुड़ासन, उन्नतासन, अवनतासन, दीर्घासन, भद्रासन, पक्षासन, मकरासन, पदमासन, दिक्स्वास्तिकासन, कुब्जा दासी, पारस देश की दासी, छत्र, छत्रधारिणी, धात्रियाँ, अंकधात्रियां, अंगमर्दिका, स्नान कराने वाली दासी, अलंकृतिकादासी, चन्दन घिसने वाली, ताम्बूल चूर्ण पीसनेवाली, काष्ठागार रक्षिका, परिहासिका सभा के पास रहने वाली दासी, नाटक करने वाली, कौटुम्बिक, भण्डार रक्षिका, तरुणियां, मालिने, पानी भरनेवाली, बलि करने वाली, शय्या, बिछाने वाली, आभ्यन्तर प्रतिहारी, बाह्य प्रतिहारी- ये सब आठ-आठ की संख्या में प्राप्त हुए। इसके अलावा प्रचुर मात्रा में हीरा-सोना आदि विपुल धन भी प्राप्त हुआ। इसी प्रकार धन्य आदि की ये सारी वस्तुएँ बत्तीस की संख्या में दहेज रुप में प्राप्त हुई। इस वर्णन से तत्कालीन धन-संपत्ति, आभूषण, यान-वाहन आदि की विविधता पर प्रकाश पड़ता है, बड़ी संख्या में दास-दासी के उल्लेख से उस समय में प्रचलित दास-प्रथा का प्रचलन भी उजागर होता है। - इस ग्रंथ के अध्ययन से उस समय की स्त्रियों की उन्नत दशा का पता चलता है। उस समय की स्त्रियों के लिए पुरुषों पर आश्रित रहना अनिवार्य नहीं था। स्त्रियां स्वतंत्र रुप से व्यापार आदि कार्य करती थी तथा परिवार की पहचान भी उसी के नाम से होती थी। उन्हें व्यापार विषयक पूरा ज्ञान था। भद्रा सार्थवाही व्यापार का कार्य ही नहीं करती है बल्कि व्यापारियों के समूह की मुखिया है। उसमें विशेषता यह है कि वह किसी से पराभूत नहीं होती है। यह उल्लेख स्त्रियों के सामाजिक रुप से प्रतिष्ठित अवस्था को दर्शाता है। यहाँ भद्रा सार्थवाही के पति का कोई उल्लेख नहीं है। इसी प्रकार छठे अंग ज्ञाताधर्मकथा के पाँचवे अध्ययन में थावच्चागाहापत्नी का उल्लेख बिना पति के ही है और उसके पुत्र का परिचय उसी के नाम से थावच्चापुत्र प्राप्त होता है। तत्कालीन नगरों के रुप में काकन्दी, राजगृह, वाणिज्य ग्राम, साकेत, हस्तिनापुर का वर्णन किया गया है। विद्वानों के अनुसार काकंदी गोरखपुर से दक्षिण-पूर्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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