Book Title: Ang Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 293
________________ 264 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा परिवार से संबंधित पांच वर्गों को जोड़ दिया गया। अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु की चर्चा करते हुए सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य हमारे. सामने यह आता है कि दिगम्बर परम्परा में अन्तकृद्दशा की जो विषयवस्तु तत्वार्थवार्तिक में उल्लिखित है वह स्थानांग की सूची से बहुत कुछ मेल खाती है। यह कैसे सम्भव हुआ? दिगम्बर परम्परा जहाँ अंग आगमों के लोप की बात करती है तो फिर तत्त्वार्थवार्तिककार को उसकी प्राचीन विषयवस्तु के संबंध में जानकारी : कैसे हो गई। मेरी ऐसी मान्यता है कि श्वेताम्बर आगम साहित्य के संबंध में दिगम्बर परम्परा में जो कुछ भी जानकारी प्राप्त हुई है वह यापनीय परम्परा के माध्यम से प्राप्त हुई और इतना निश्चित है कि यापनीय और श्वेताम्बरों का भेद होने तक स्थानांग में उल्लिखित सामग्री अन्तकृत्दशा में प्रचलित रही हो और तत्संबंधी जानकारी अनुश्रुति के माध्यम से तत्त्वार्थ वार्तिककार तक पहुंची हो। तत्वार्थवार्तिककार को : भी कुछ नामों के संबंध में अवश्य ही भ्रांति है, उसके सामने मूलग्रंथ होता तो ऐसी मंत की सम्भावना नहीं रहती। जमाली का तो संस्कृत रुप यमलीक हो सकता है किन्तु भगाली या भयाली का संस्कृत रुप वलीक किसी प्रकार नहीं बनता। इसी प्रकार किंकम का किष्कम्बल रुप किस प्रकार बना, यह भी विचारणीय है। चिल्वक या पल्लतेत्तीय के नाम का अपलाप करके पालअम्बष्ठपुत्त को भी अलग-अलग कर देने से ऐसा लगता है कि वार्तिककार के समक्ष मूल ग्रंथ नहीं है केवल अनुश्रुति के रुप में ही वह उनकी चर्चा कर रहा है। जहाँ श्वेताम्बर चूर्णिकार और टीकाकार विषयवस्तु संबंधी दोनों प्रकार की विषयवस्तु से अवगत हैं वहां दिगम्बर (आचार्यों को मात्र प्राचीन संस्करण) उपलब्ध अन्तकृद्दशा की विषयवस्तु के संबंध में जो कि छठी शताब्दी में अस्तित्व में आ चुकी थी कोई जानकारी नहीं थी। अतः उनका आधार केवल अनुश्रुति था ग्रन्थ नहीं। जबकि श्वेताम्बर परम्परा के आचार्यों का आधार एक ओर ग्रन्थ था तो दूसरी और स्थानांग का विवरण। धवला और जयधवला में अन्तकृत्दशा सम्बन्धी जो विवरण उपलब्ध हैं वह निश्चित रुप से तत्त्वार्थवार्तिक पर आधारित हैं। स्वयं धवलाकार वीरसेन "उक्तं च तत्त्वार्थभाष्ये" कहकर उसका उल्लेख करता है। इससे स्पष्ट है कि धवलाकार के समक्ष भी प्राचीन विषवस्तु का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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